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आदिपुराणम्
प्रतिवामरेन्द्रस्य सनटन्थ्योऽमराङ्गनाः । सयनं संचरन्ति स्म पञ्चयन्त्योऽक्षिसंकुलम् ॥ १४४ ॥ स्फुटचिव कटाक्षेषु कपोलेषु स्फुरनिव । प्रसरक्षिव पादेषु करेषु विलसन्निव ॥ १४५ ॥ विहसचिव वक्त्रेषु नेत्रेषु विकसनिव । रज्यन्निवाङ्गरागेषु निमज्जनिव नाभिषु ॥ १४६ ॥ चलचित्र कटवासां मेखलासु स्खलविव । तदा नाव्यरसोऽङ्गेषु ववृधे वर्द्धितोत्सवः ॥ १४७॥ प्रत्यङ्गममरेन्द्रस्य या श्रेष्टा नृत्यतोऽभवन् । ता एव तेषु पात्रेषु संविभक्ता इवारुचन् ॥१४८॥ " रसात एव ते मावास्तेऽनुमावास्तदिङ्गितम् । अनुप्रवेशितो नूनमात्मा तेष्वमरेशिना ॥ १४९॥ सोमरस्वभुजदण्डेषु नर्त्तयन् सुरनर्त्तकीः । तारवी: पुत्रिका यन्त्रफल केन्विव यान्त्रिकः ॥ १५० ॥ ऊर्ध्वमुञ्चलयन् व्योम्नि नटन्तीदर्शयन् पुनः । क्षणात्कुर्वनडरपास्ताः सोऽभून्माहेन्द्रजालकः ॥ १५१ ॥ इतश्वेतः स्वदोर्जाले गूढं संचारयन् नटी: । 'सभवान् "हस्तसंचारमिवासीदाचरन् हरिः ॥ १५२ ॥ नर्तयनेकतो यूनो युवतीरन्यतो हरिः । भुजशाखासु सोऽनतींद् दर्शिताद्भुतविक्रियः ॥ १५३ ॥ नेदुस्तजरङ्गेषु ते च ताश्च "परिक्रमैः । सुत्रामा सूत्रधारोऽभून्नाव्य वेदविदांवरः ॥ १५४ ॥
"दीसोद्धतरसप्रायं नृत्यं ताण्डवमेकतः । सुकुमारप्रयोगाढ्यं ललितं लास्यमन्यतः ॥ १५५॥
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प्रत्येक भुजापर नृत्य करती हुई और अपने नेत्रोंके कटाक्षोंको फैलाती हुई बड़े यत्न से संचार कर रही थीं ॥१४४॥ उस समय उत्सवको बढ़ाता हुआ वह नाट्यरस उन देवियोंके शरीर में खूब ही बढ़ रहा था और ऐसा मालूम होता था मानो उनके कटाक्षों में प्रकट हो रहा हो, कपोलोंमें स्फुरायमान हो रहा हो, पाँवों में फैल रहा हो, हाथों में विलसित हो रहा हो, मुखोंपर हँस रहा हो, नेत्रों में विकसित हो रहा हो, अंगरागमें लाल वर्ण हो रहा हो, नाभि में निमग्न हो रहा हो, कटिप्रदेशोंपर चल रहा हो और मेखलाओंपर स्खलित हो रहा हो। १४५-१४७॥ नृत्य करते हुए इन्द्रके प्रत्येक अंगमें जो चेष्टाएँ होती थीं वही चेष्टाएँ अन्य सभी पात्रों में हो रही थीं जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो इन्द्रने अपनी चेष्टाएँ उन सबके लिए बाँट हो दी हों ॥ १४८ ॥ उस समय इन्द्रके नृत्यमें जो रस, भाव, अनुभाव और चेष्टाएँ थीं वे ही रस, भाव, अनुभाव और चेष्टाएँ अन्य सभी पात्रों में थीं जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो इन्द्रने अपनी आत्माको ही उनमें प्रविष्ट करा दिया हो ॥ १४९ ॥ अपने भुजदण्डोंपर देवनर्तकियोंको नृत्य कराता हुआ वह इन्द्र ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो किसी यन्त्रकी पटियोंपर लकड़ीकी पुतलियोंको नचाता हुआ कोई यान्त्रिक अर्थात् यन्त्र चलानेवाला ही हो ॥ १५०॥ वह इन्द्र नृत्य करती हुई उन देवियोंको कभी ऊपर आकाशमें चलाता था, कभी सामने नृत्य करती हुई दिखला देता था और कभी क्षण भरमें उन्हें अदृश्य कर देता था, इन सब बातों से वह किसी इन्द्रजालका खेल करनेबालेके समान जान पड़ता था ।। १५१ ।। नृत्य करनेवाली देवियों को अपनी भुजाओंके समूहपर गुप्तरूप से जहाँ-तहाँ घुमाता हुआ वह इन्द्र हाथकी सफाई दिखलानेवाले किसी बाजीगर के समान जान पड़ता था ।। १५२ || वह इन्द्र अपनी एक ओरकी भुजाओंपर तरुण देवोंको नृत्य करा रहा था और दूसरी ओरकी भुजाओंपर तरुण देवियोंको नृत्य करा रहा था तथा अद्भुत बिक्रिया शक्ति दिखलाता हुआ अपनी भुजारूपी शाखाओंपर स्वयं भी नृत्य कर रहा था ।। १५३ ॥ इन्द्रकी भुजारूपी रंगभूमिमें वे देव और देवांगनाएँ प्रदक्षिणा देती हुई नृत्य कर रही थीं इसलिए वह इन्द्र नाट्यशास्त्र के जाननेवाले सूत्रधारके समान मालूम होता था ।। १५४ ॥ उस समय एक ओर तो दीप्त और उद्धत रससे भरा हुआ
१. विस्तारयन्यः । 'पचि विस्तारवचने' । वञ्चयन्त्यो - ब०, अ०, प०, स० । २ शृङ्गारादयः । ३. ते एव भावा: चित्तसमुन्नतयः । ४. भावबोधकाः । ५. चित्तविकृति । ६० तरुसंबन्धिपाञ्चालिका । 'पाञ्चालिका पुत्रिका स्याद् वस्त्रदन्तादिभिः कृता' । ७ सूत्रधारः । ८. पुरः म०, ल० । ९. पूज्यः । १०. हस्तसंचालनम् । ११. पदसंचारः । १२. दारुण ।