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चतुर्दशं पर्व वईमानलयः काश्रित् काश्चित् ताण्डवलास्यकैः । मनृतुः सुरनर्तक्यः चित्रैरभिनयैस्तदा ॥१३॥ मनिदरावती पिण्डीमैन्दी बवामराङ्गनाः । प्रानर्तिषुः प्रवेश निकमैश्च नियन्त्रितैः ॥१३४॥ कल्पढ़मस्य शाखासु कल्पवल्ल्य इवोद्गताः । रेजिरे सुरराजस्य बाहुशाखासु तास्तदा ॥१३५॥ स ताभिः सममारब्धरेचको व्यरुचत्तराम् । चक्रान्दोल इव श्रीमान् चलन्मुकुटशेखरः ॥१३६॥ सहस्राक्षसमुरफुल्लविकसत्पङ्कजाकरे । ताः पभिन्य इवाभवन् स्मेरवक्ताम्बुजश्रियः ॥१३७॥ स्मितांशुभिर्विमिनानि तद्वक्त्राणि चकासिरे । विकस्वराणि पनानि प्लुतानीवामृतप्लः ॥१३८॥ कुलशैलायितानस्य भुजानध्यास्य काश्चन । रेजिरे परिनृत्यन्त्या मूर्तिमत्य इव श्रियः ॥१३९॥ नेटुरैरावतालान स्तम्भयष्टिसमायतान् । अध्यासीना भुजानस्य वीरलक्ष्म्य इवापराः ॥१४॥ हारमुक्ताफलेवन्याः संक्रान्तप्रतियातनाः" । ननृतुबहुरूपिण्यो विचा इव विडोजसः ॥११॥ कराङ्गुलीषु शक्रस्य न्यस्यम्स्यः क्रमपल्लवान् । सलीलमनटन् काचित् सूचीनाव्यमिवास्थिताः ॥१४२॥
भ्रेमुः कराङ्गुलीरन्यः सुपर्वाचिदिवेशिनः । वंशयष्टीरिवारुह्य तदप्राप्तिनामयः ॥४३॥ सुन्दरतापूर्वक पैर उठाती रखती हुई (थिरक-थिरककर) नृत्य कर रही थीं ॥१३२।। उस समय कितनी ही देवनर्तकियाँ वर्द्धमान लयके साथ, कितनी ही ताण्डव नृत्यके साथ और कितनी ही अनेक प्रकारके अभिनय दिखलाती हुई नृत्य कर रही थीं ॥१३३।। कितनी देवियाँ बिजलीका और कितनी ही इन्द्रका शरीर धारण कर नाट्यशासके अनुसार प्रवेश तथा निष्क्रमण दिखलाती हुई नृत्य कर रही थीं ॥१३४॥ उस समय इन्द्रकी भुजारूपी शाखाओंपर नृत्य करती हुई वे देवियाँ ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानो कल्पवृक्षकी शाखाओंपर फैली हुई . कल्पलताएँ ही हों॥१३५।। वह श्रीमान् इन्द्र नृत्य करते समय उन देवियोंके साथ जब फिरकी लगाता था तब उसके मुकुटका सेहरा भी हिल जाता था और वह ऐसा शोभायमान होता था मानो कोई चक्र ही घूम रहा हो ॥१३६।। हजार आँखोंको धारण करनेवाला वह इन्द्र फूले हुए विकसित कमलोंसे सुशोभित तालाबके समान जान पड़ता था और मन्द-मन्द हँसते हुए मुखरूपी कमलोंसे शोभायमान, भुजाओंपर नृत्य करनेवाली वे देवियाँ कमलिनियोंके समान जान पड़ती थीं ॥१३७॥ मन्द हास्यकी किरणोंसे मिले हुए उन देवियोंके मुख ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो अमृतके प्रवाहमें डूबे हुए विकसित कमल ही हों ॥१३८।। कितनी ही देवियाँ कुलाचलोंके समान शोभायमान उस इन्द्रकी भुजाओंपर आरूढ़ होकर नृत्य कर रही थीं और ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो शरीरधारिणी लक्ष्मी ही हों॥१३९॥ ऐरावत हाथीके बाँधनेके खम्भेके समान लम्बी इन्द्रकी भुजाओंपर आरूढ़ होकर कितनी ही देवियाँ नृत्य कर रही थीं और ऐसी मालूम थीं मानो कोई अन्य वीर-लक्ष्मी ही हों॥१४०॥ नृत्य करते समय कितनी ही देवियोंका प्रतिबिम्ब उन्हींके हारके मोतियोंपर पड़ता था जिससे वे ऐसी मालूम होती थीं मानो इन्द्रकी बहुरूपिणी विद्या ही नृत्य कर रही हो ।।१४।। कितनी ही देवियाँ इन्द्र के हाथोंकी अंगुलियोंपर अपने चरण-पल्लव रखती हुई लीलापूर्वक नृत्य कर रही थीं और ऐसी मालूम होती थीं मानो सूचीनाट्य (सूईकी नोकपर किया जानेवाला नृत्य) ही कर रही हों ॥१४२॥ कितनी ही देवियाँ सुन्दर पर्वोसहित इन्द्रकी अँगुलियोंके अग्रभागपर अपनी नाभि रखकर इस प्रकार फिरकी लगा रही थीं मानो किसी बाँसको लकड़ीपर चढ़कर उसके अग्रभागपर नाभि रखकर मनोहर फिरकी लगा रही हों ॥१४३।। देवियाँ इन्द्रकी
१. ताण्डवरूपनर्तनः । २. शरीरम् । 'संघातग्रासयोः पिण्डीर्द्वयोः पुंसि कलेवरे।' इत्यभिधानात् । ३. निर्गमनैश्च । ४. भ्रमणः । ५. युक्तानि । ६. विकसनशीलानि । ७. धौतानि। ८. प्रवाहैः। ९ परिनत्यन्तो प०, म०, ल० । १०. बन्धनस्तम्भः । ११. प्रतिबिम्बाः । १२. आश्रिताः । १३. सुग्रन्थीः। .