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चतुर्दशं पर्व
यस्याश्व बहिरुद्यानैरनेकानोकहाकुलैः । फलच्छा यप्रदैः कल्पतरुच्छाया स्म लक्ष्यते ॥ ६८ ॥ यस्याः पर्यन्तमावेष्ट्य स्थिता सा सरयूर्नदी । सत्पुलिन संसुप्तसारसा हंसनादिनी ॥ ६९ ॥ यां' प्राहुररिदुर्लङ्घयामैयोध्यां योधसंकुलाम् । विनीताखण्डमध्यस्था' या 'तज्ञामिरिवाबभौ ॥७०॥ तामारुभ्य पुरीं विष्वगनीकानि सुधाशिनाम् । तस्थुर्जगन्ति तच्छोमामागतानीव वीक्षितुम् ॥ ७१ ॥ ततः कतिपयैर्देवैर्देवमादाय देवराट् । प्रविवेश नृपागारं परार्ध्यश्रीपरम्परम् ॥७२॥ तत्रामस्कृतानेक विन्यासे श्रीगृहाङ्गणे । हर्यासने कुमारं तं सौधर्मेन्द्रो न्यवीविशत् ॥ ७३ ॥ नामिराजः समुद्भिन्नपुलकं गात्रमुद्वहन् । प्रीतिविस्फारिताक्षस्तं ददर्श प्रियदर्शनम् ॥७४॥ मायानिद्रामपाकृत्य देवी शच्या प्रबोधिता । देवीमिः सममैक्षिष्ट प्रहृष्टा जगतां पतिम् ॥७५॥ तेजःपुञ्जमिवोद्भूतं सापश्यत् स्वसुतं सती । " बालार्केन्द्रेण च [सा] तेन दिगैन्द्रीव विदिद्युते ॥७६॥ शच्या समं च नाकेशं तावद्राष्टां जगद्गुरोः । पितरौ नितरां प्रीतौ परिपूर्ण मनोरथौ ॥ ७७ ॥ ततस्तौ जगतां पूज्यौ पूजयामास वासवः । विचित्रेभूषणैः खग्भिरंशुकैले 'महार्षकैः ॥७८॥ तौ प्रीतः प्रशसंसेति सौधर्मेन्द्रः सुरैः समम् । युवां पुण्यधवौ' 'धन्यौ ययोर्लोकाप्रणीः सुतः ||१९||
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वह नगरी शुद्ध खानिकी भूमिके समान थी और उसने करोड़ों पुरुषरूपी अमूल्य महारत्न उत्पन्न भी किये थे ||६७|| अनेक प्रकारके फल तथा छाया देनेवाले और अनेक प्रकारके वृक्षों से भरे हुए वहाँ के बाहरी उपवनोंने कल्पवृक्षोंकी शोभा तिरस्कृत कर दी थी ||६८|| उसके समीपवर्ती प्रदेशको घेरकर सरयू नदी स्थित थी जिसके सुन्दर किनारोंपर सारस पक्षी सो रहे थे और हंस मनोहर शब्द कर रहे थे || ६२९|| वह नगरी अन्य शत्रुओंके द्वारा दुर्लध्य थी और स्वयं अनेक योद्धाओंसे भरी हुई थी इसीलिए लोग उसे 'अयोध्या' ( जिससे कोई युद्ध नहीं कर सके ) कहते थे। उसका दूसरा नाम विनीता भी था और वह आर्यखण्डके मध्य में स्थित थी इसलिए उसकी नाभिके समान शोभायमान हो रही थी ||१०|| देवोंकी सेनाएँ उस अयोध्यापुरीको चारों ओर से घेरकर ठहर गयी थीं जिससे ऐसी मालूम होती थी मानो उसकी शोभा देखने के लिए तीनों लोक ही आ गये हों ॥ ७१ ॥ तत्पश्चात् इन्द्रने भगवान् वृषभदेवको लेकर कुछ देवोंके साथ उत्कृष्ट लक्ष्मीसे सुशोभित महाराज नाभिराजके घर में प्रवेश किया || ७२ ॥ और वहाँ जहाँपर देवोंने अनेक प्रकारकी सुन्दर रचना की है ऐसे श्रीगृहके आँगनमें बालकरूपधारी भगवान्को सिंहासनपर विराजमान किया || ७३ || महाराज नाभिराज उन प्रियदर्शन भगवान्को देखने लगे, उस समय उनका सारा शरीर रोमांचित हो रहा था, नेत्र प्रीति से प्रफुल्लित तथा विस्तृत हो रहे थे ||७४ || मायामयी निद्रा दूर कर इन्द्राणीके द्वारा प्रबोधको प्राप्त हुई माता मरुदेवी भी हर्षितचित्त होकर देवियोंके साथ-साथ तीनों जगत्के स्वामी भगवान् वृषभदेवको देखने लगी ||७५ || वह सती मरुदेवी अपने पुत्रको उदय हुए तेजके पुंजके समान देख रही थी और वह उससे ऐसी सुशोभित हो रही थी जैसी कि बालसूर्यसे पूर्व दिशा सुशोभित होती है ||७६ || जिनके मनोरथ पूर्ण हो चुके हैं ऐसे जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव के माता-पिता अतिशय प्रसन्न होते हुए इन्द्राणी के साथ-साथ इन्द्रको देखने लगे ||७७|| तत्पश्चात् इन्द्रने नानाप्रकारके आभूषणों, मालाओं और बहुमूल्य वस्त्रोंसे उन जगत्पूज्य माता-पिताकी पूजा की ॥७८॥ फिर वह सौधर्म स्वर्गका इन्द्र अत्यन्त सन्तुष्ट होकर उन दोनोंकी इस प्रकार स्तुति करने लगा
१. शोभा अनातपो वा । २. यामाहु - अ०, स० म० । ३. शत्रुदुर्गमाम्; हेतुगर्भितमिदं विशेषणम् । ४. भटसंकीर्णाम् । ५. आर्यखण्डनाभिः । ६. तदार्यखण्डनाभिः । ७ जगत्त्रयम् । ८. अनेकरचनाविन्यासे । ९. स्थापयामास । १०. प्रीतिकरावलोकनम् । ११. बालार्केणेव सा तेन प०, ५०, स०, म, ल० । १२. - रदभुतैश्च अ०, स० म०. ल० । १३. महामृत्यैः । १४. पुण्यधनो ब०, अ०, प०, म०, ६०, स०, ल० ।