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आदिपुराणम् याचकाद् गगनोल्लशिशिखरैः पृथुगोपुरैः । स्वर्गमाइयमानेव पवनोच्छ्रितकेतनैः ॥५६॥ यस्यां मणिमयो भूमिस्तारकाप्रतिविम्वितैः । दधे कुमुदतीलक्ष्मीमभूणां क्षणदामुखे ॥५॥ या पताकाको रमुरिक्षः पवनाहतैः । भाजापुरिव स्वर्गवासिनोऽभूत् कुतूहलात् ॥५॥ यस्यां मणिमयैईम्यः कृतदम्पतिसंश्रयैः । आक्षिप्लेव सुराधीशविमानश्रीरसंभ्रमम् ॥५९॥ यत्र सौधाप्रसंलग्नरिन्दुकान्तशिलातलैः" । चन्द्रपादामिसंस्पर्शात् क्षरनिर्जलदायितम् ॥३०॥ या धत्ते स्म महासौधशिखरैमणिमासुरैः । सुरचापभियं विक्षु विततां रखमामयीम् ॥६॥ सरोजरागमाणिक्य"किरणैः कचिदम्बरम् । यत्र संध्याम्बुदच्छचमिवालक्ष्यत पाटलम् ॥६२॥ इन्द्रनीलोपलैः सौधकूटलग्वैर्विलचितम्" । स्फुरद्भिज्योतिषां चक्रं यत्र नालक्ष्यताम्बरे ॥३३॥ गिरिकूटतटानीव सौधकूटानि शारदाः । धना यत्राश्रयन्ति स्म सूचतः कस्य नाश्रयः ॥४॥ प्राकारवलयो यस्याश्चामीकरमयोऽयतत् । मानुषोत्तरशैलस्य श्रियं रस्नैरिवाहसन् ॥६५॥ यस्खातिका महाम्भोधेीला यादोभिरुखतः । धत्ते स्म क्षुभितालोलकल्लोलावतमीषणा ॥६६॥
जिनप्रसवभूमित्वाद् या शुद्धाकरभूमिवत् । सूते स्म पुरुषानय॑महारवानि कोटिशः ॥६७॥ जिनके शिखर आकाशको उल्लंघन करनेवाले हैं और जिनपर लगी हुई पताकाएँ वायुके वेगसे फहरा रही हैं ऐसे गोपुर-दरवाजोंसे वह अयोध्या नगरी ऐसी शोभायमान होती थी मानो स्वर्गपुरीको ही बुला रही हो ।। ५६ ॥ उस अयोध्यापुरीकी मणिमयी भूमि रात्रिके प्रारम्भ समयमें ताराओंका प्रतिबिम्ब पड़नेसे ऐसी जान पड़ती थी मानो कुमुदोंसे सहित सरसीकी अखण्ड शोभा ही धारण कर रही हो ।। ५७ ॥ दूर तक आकाशमें वायुके द्वारा हिलती हुई पताकाओंसे वह अयोध्या ऐसी मालूम होती थी मानो कौतूहलवश ऊँचे उठाये हुए हाथोंसे स्वर्गवासी देवोंको बुलाना चाहती हो।५८॥ जिनमें अनेक सुन्दर स्त्री-पुरुष निवास करते थे ऐसे वहाँ के मणिमय महलोंको देखकर निःसन्देह कहना पड़ता था कि मानो उन महलोंने इन्द्र के विमानोंको शोभा छीन ली थी अथवा तिरस्कृत कर दी थी ।।५।। वहाँपर चूना गचीके बने हुए बड़े-बड़े महलोंके अग्रभागपर सैकड़ों चन्द्रकान्तमणि लगे हुए थे, रातमें चन्द्रमाकी किरणोंका स्पर्श पाकर उसमे पानी झर रहा था जिससे वे मणि मेघके समान मालूम होते थे ॥६० ॥ उस नगरीके बड़े-बड़े राजमहलोंके शिखर अनेक मणियोंसे देदीप्यमान रहते थे, उनसे सब दिशाओंमें रत्नोंका प्रकाश फैलता रहता था जिससे ऐसा मालूम होता था मानो वह नगरी इन्द्रधनुष ही धारण कर रही हो ॥६१ ॥ उस नगरीका आकाश कहीं-कहींपर पद्मरागमणियोंकी किरणोंसे कुछ-कुछ लाल हो रहा था जिससे ऐसा मालूम होता था मानो सन्ध्याकालके बादलोंसे आच्छादित ही हो रहा हो ॥६२।। वहाँके राजमहलोंके शिखरोंमें लगे हुए देदीप्यमान इन्द्रन मणियोंसे छिपा हुआ ज्योतिश्चक्र आकाशमें दिखाई ही नहीं पड़ता था ॥६३।। उस नगरीकेराजमहलोंके शिखर पर्वतोंके शिखरोंके समान बहुत ही ऊँचे थे और उनपर शरद् ऋतुके मेघ आश्रय लेते थे सो ठीक ही है क्योंकि जो अतिशय उन्नत (ऊँचा या उदार ) होता है वह किसका आश्रय नहीं होता? ॥६४|| उस नगरीका सुवर्णका बना हुआ परकोटा ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो अपनेमें लगे हुए रत्नोंकी किरणोंसे सुमेरु पर्वतकी शोभाकी हँसी ही कर रहा हो॥६५।। अयोध्यापुरीकी परिखा उद्धत हुए जलचर जीवोंसे सदा क्षोभको प्राप्त होती रहती थी और चञ्चल लहरों तथा आवोंसे भयंकर रहती थी इसलिए किसी बड़े भारी समुद्रकी लीला धारण करती थी ॥६६॥ भगवान् वृषभदेवकी जन्मभूमि होनेसे
१. आभात् । २. स्पर्द्धमाना । ( आकारयन्ती वा ) 'हज स्पर्धायां शन्दे च'। ३. यस्या प०, ल० । ४. प्रतिबिम्बः । ५.-मक्षुण्णं ल०। ६. रजनीमुखे । ७. आह्वातुमिच्छुः। ८. तिरस्कृता। ९. निराकुलं यथा भवति तथा । १०.-शिलाशतैः अ०, ५०, द०, स०, म०, ल०। ११. पद्मराग। १२. आक्रान्तम् । १३. -रिवाहसत् प०, द०, स०, म०, ल० । १४. मकरादिजलजन्तुभिः ।