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चतुर्दशं पर्व नमः स्तादार्य ते शुद्धिभिते श्रीधर ते नमः । नमः सुविधये तुभ्यमच्युतेन्द्र नमोऽस्तु ते ॥४९॥ वनस्तम्मस्थिराङ्गाय नमस्ते वज्रनामय । सर्वार्थ सिरिनाथाय सर्वार्था सिद्धिमीयुपे ॥५०॥ दशावतारचरमपरमौदारिकस्विषे । सूनवे नामिराजस्य नमोऽस्तु परमेष्ठिने ॥५॥ भवन्तमित्यभिष्टुत्य नान्यदाशास्महे "वयम् । भक्तिस्त्वय्येव नौ' भूयादलमन्यमितैः फलैः ॥५२॥ इति स्तुत्वा सुरेन्द्रास्तं परमानन्दनिर्भराः । अयोध्यागमने भूयो मतिं चक्रः कृतोत्सवाः ॥५३॥ तथैव प्रहता भेयस्तथैवाघोषितो जयः । तथैवैरावतेभेन्द्रस्कन्धारूढं व्यधुर्जिनम् ॥५४॥
महाकलकलैगतैिर्नृतैः सजयघोषणैः । गगनाङ्गणमुस्पस्य द्वागाजग्मुरमू पुरीम् ॥५५॥ हो ॥४८|आप आर्य अर्थात् पूज्य हैं अथवा सातवें भवमें भोगभूमिज आर्य थे इसलिए आपको नमस्कार हो, आप दिव्य श्रीधर अर्थात् उत्तम शोभाको धारण करनेवाले हैं अथवा छठे भवमें श्रीधर नामके देव थे ऐसे आपके लिए नमस्कार हो, आप सुविधि अर्थात् उत्तम भाग्यशाली हैं अथवा पाँचवें भवमें सुविधि नामके राजा थे इसलिए आपको नमस्कार हो, आप अच्यतेन्द्र अर्थात अविनाशी स्वामी हैं अथवा चौथे भवमें अच्युत स्वर्गके इन्द्र थे इसलिए आपको नमस्कार हो। ४९ ॥ आपका शरीर वनके खम्भेके समान स्थिर है और आप वजनाभि अर्थात् वजके समान मजबूत नाभिको धारण करनेवाले हैं अथवा तीसरे भवमें वजनाभि नामके चक्रवर्ती थे ऐसे आपको नमस्कार हो। आप सर्वार्थसिद्धिके नाथ अर्थात् सब पदार्थोकी सिद्धिके स्वामीतथासर्वार्थसिद्धि अर्थात् सबप्रयोजनोंकी सिद्धिको प्राप्त हैं अथवा दूसरे भवमें सर्वार्थसिद्धि विमानको प्राप्त कर उसके स्वामी थे इसलिए आपको नमस्कार हो ।।५।। हे नाथ! आप दशावतारचरम अर्थात् सांसारिक पर्यायोंमें अन्तिम अथवा अपर कहे हुए महाबल आदि दश अवतारोंमें अन्तिम परमौदारिक शरीरको धारण करनेवाले नाभिराजके पुत्र वृषभदेव परमेष्ठी हुए हैं इसलिए आपको नमस्कार हो। भावार्थ-इस प्रकार श्लेषालंकारका आश्रय लेकर आचार्यने भगवान् वृषभदेवके दस अवतारोंका वर्णन किया है, उसका अभिप्राय यह है कि अन्यमतावलम्बी श्रीकृष्ण विष्णुके दस अवतार मानते हैं। यहाँ आचार्यने दस अवतार बतलाकर भगवान् वृषभदेवको ही श्रीकृष्ण-विष्णु सिद्ध किया है ॥५१॥ हे देव, इस प्रकार आपकी स्तुति कर हम लोग इसो फलको आशा करते हैं कि हम लोगोंकी भक्ति आपमें हीरहे । हमें अन्य परिमित फलोंसे कुछ भी प्रयोजन नहीं है ।।१२।। इस प्रकार परम आनन्दसे भरे हुए इन्द्रोंने भगवान ऋषभदेवकी स्तुति कर उत्सवके साथ अयोध्या चलनेका फिर विचार किया ॥५३।। अयोध्यासे मेरु पर्वत तक जाते समय मार्गमें जैसा उत्सव हुआ था उसी प्रकार फिर होने लगा । उसी प्रकार दुन्दुभि बजने लगे, उसी प्रकार जय-जय शब्दका उच्चारण होने लगा और उसी प्रकार इन्द्रने जिनेन्द्र भगवानको ऐरावत हाथीके कन्धेपर विराजमान किया ॥ ५४॥ वे देव बड़ा भारी कोलाहल, गीत, नृत्य और जय-जय शब्दकी घोषणा करते हुए आकाशरूपी आँगनको उलंघ कर शीघ्र ही अयोध्यापुरी आ पहुँचे ॥५५।।
१. नमोऽस्तु तुभ्यमार्याय दिव्यश्रीधर ते नमः अ०, ५०, द०, स०, ल० । म० पुस्तके द्विविधः पाठः। २. पूज्य, पक्षे भोगभूमिजन । ३. दर्शनशुद्धिप्राप्ताय । ४. संपद्धर, पक्षे श्रीधरनामदेव । ५. शोभनदेवाय । शोभनभोग्यायेत्यर्थः । 'विधिविधाने देवेऽपि' इत्यभिषानात्, पक्षे सुविधिनामनपाय । ६. अविनश्वरश्रेष्टश्वर्य, पक्षे अच्युतकल्पामरेन्द्र । ७. वज्रस्तम्भस्थिराङ्गत्वाद वचनाभिर्यस्यासौ बज्रनाभिस्तस्मै। पक्षे वज्रनाभिचक्रिणे । ८. महाबलादिदशावतारेष्वन्त्यपरमौदारिकदेहमरीचये । ९. फलमाशास्महे वयम् अ०, ५०, स०, द०, ल०। म० पुस्तके द्विविधः पाठः। १० याचामहे । ११. अस्माकम् । १२. परमानन्दातिशयाः । १३. अयोध्यापुरान्निर्गत्य मेरुप्रस्थानसमये यथा वाद्यवादनादयो जातास्तथैव ते सर्वे इदानीमपि जाताः ।