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त्रयोदशं पव
सद्यः संहृतमौष्ण्यमुष्णकिरणैराम्रेडितं' शीकरैः
शैत्यं शीतकरै मुटुभिर्ब्रद्धोपैः क्रीडितम् । तारौवैस्तरलैस्तरद्भिरधिकं डिण्डीरपिण्डायितं,
यस्मिन् मञ्जनसंविधौ स जयताज्जैनो जगत्पावनः ॥ २१५ ॥ सानन्द त्रिदशेश्वरैः सचकितं देवीभिरुत्पुष्करैः
सत्रासं सुरवारणैः प्रणिहितैरासादरं चारणैः । साशङ्कं गगनेचरैः किमिदमित्यालोकितो यः स्फुरन्
मेरोर्मूर्ध्नि स नोऽवता जिन विभोजन्मोत्सवाम्भः प्लवः ॥२१६॥ इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिष्टिलक्षण महापुराण संघ हेभगवज्जन्माभिषेकवर्णनं नाम त्रयोदशं पर्व ॥१३॥
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जन्मोत्सव किया था वे प्रथम जिनेन्द्र तुम सबकी रक्षा करें ॥ २१४ || जिनके जन्माभिषेकके समय सूर्यने शीघ्र ही अपनी उष्णता छोड़ दी थी, जलके छींटे बार-बार उछल रहे थे, चन्द्रमाने शीतलताको धारण किया था, नक्षत्रोंने बँधी हुई छोटी-छोटी नौकाओंके समान जहाँ-तहाँ क्रीड़ा की थी, और तैरते हुए चंचल ताराओंके समूहने फेनके पिण्डके समान शोभा धारण की थी वे जगत्को पवित्र करनेवाले जिनेन्द्र भगवान् सदा जयशील हों ।। २१५ ।। मेरु पर्वतके मस्तकपर स्फुरायमान होता हुआ, जिनेन्द्र भगवान के जन्माभिषेकका वह जल-प्रवाह हम सबकी रक्षा करे जिसे कि इन्द्रोंने बड़े आनन्दसे, देवियोने आश्चर्यसे, देवोंके हाथियोंने सूँड़ ऊँची उठाकर बड़े भय से, चारण ऋद्धिवारी मुनियोंने एकाग्रचित्त होकर बड़े आदरसे और विद्याधरोंने 'यह क्या है' ऐसी शंका करते हुए देखा था ।। २१६ ।।
इस प्रकार भार्ष नामसे प्रसिद्ध श्री भगवज्जिनसेनाचार्यविरचित त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहमें भगवान् के जन्माभिषेकका वर्णन करनेवाला तेरहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥ १३ ॥
१. द्विस्त्रिरुक्तम् । २. घृतम् । ३. बद्धकालः सद्भिः क्रीडितम् । 'उडुपं तु प्लवः कोक:' इत्यभिधानात् । ४. अवधानपरैः, ध्यानस्थैरित्यर्थः ।