________________
त्रयोदश पर्व
निर्वृत्ता'वमिषेकस्य कृतावभृथमज्जनाः । परीत्य परमं ज्योतिरा नर्चुर्भुवनाचिंतम् ॥ २००॥ गन्धैर्धूपैश्च दीपैश्च साक्षतैः कुसुमोदकैः । मन्त्रपूतैः फलैः सार्वैः सुरेन्द्रा विभुमीजिरे ॥२०१॥ "कृतेष्टयः कृतानिष्टविधाताः कृतपौष्टिकाः । जन्माभिषेकमित्युच्चैर्ना केन्द्रा 'निरतिष्टिपन् ॥ २०२॥ इन्द्रेन्द्राण्यौ समं देवैः परमानन्ददायिनम् । क्षणं चूडामणिं मेरोः परीत्यैनं प्रणेमतुः ॥ २०३ ॥ दिवोऽपतत्तदा पौप्पी वृष्टिर्जलकणैः समम् । मुक्तानन्दाश्रुबिन्दूनां श्रेणीव त्रिदिवश्रिया ॥२०४॥ रजःपटलमाधूय सुरागसुमनोभवम् । मातरिश्वा ववौ मन्दं स्नानाम्मरशीकरान् किरन् ॥२०५॥ सज्योतिर्भगवान् मेरोः कुलशैलायिताः सुराः । क्षीरमेघायिताः कुम्माः सुरनार्योऽप्सरायिताः ॥२०६॥ शक्रः 'स्नपयिताद्वीन्द्रः स्नानपीठी" सुराङ्गनाः । नर्त्तक्यः किङ्करा देवाः " स्नानद्रोणी पयोऽर्णवः॥२०७॥ इति श्लाध्यतमे मेरौ निर्वृत्तः स्नपनोत्सवः । स यस्य भगवान् पूयात् पूतात्मा वृषभो जगत् ॥ २०८॥ मालिनी अथ पवनकुमाराः 'स्वामित्र " प्राज्यभक्तिं
१२
दिशि दिशि विभजन्तो मन्दमन्दं " विचेरुः । मुमुचुरमृतगर्भाः सोकरासारधारा: किल "जलदकुमारा मैरवीषु स्थलीषु ॥२०९॥
१७
जलसे परस्पर में फाग की अर्थात् बह सुगन्धित जल एक-दूसरेपर डाला || १९९ || इस प्रकार अभिषेककी समाप्ति होनेपर सब देवोंने स्नान किया और फिर त्रिलोकपूज्य उत्कृष्ट ज्योतिस्वरूप भगवान् की प्रदक्षिणा देकर पूजा की ||२००|| सब इन्द्रोंने मन्त्रोंसे पवित्र हुए जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, (नैवेद्य ), दीप, धूप, फल और अर्धके द्वारा भगवान्की पूजा की || २०१ || इस तरह इन्द्रोंने भगवान्की पूजा की, उसके प्रभावसे अपने अनिष्ट- अमंगलोंका नाश किया और फिर पौष्टिक कर्म कर बड़े समारोहके साथ जन्माभिषेककी विधि समाप्त की || २०२ || तत्पश्चात् इन्द्र इन्द्राणीने समस्त देवोंके साथ परम आनन्द देनेवाले और क्षण-भर के लिए मेरु पर्वतपर चूड़ामणिके समान शोभायमान होनेवाले भगवान् की प्रदक्षिणा देकर उन्हें नमस्कार किया || २०३।। उस समय स्वर्गसे पानीकी छोटी-छोटी बूँदोंके साथ फूलोंकी वर्षा हो रही थी और वह ऐसी मालूम होती थी मानो स्वर्गकी लक्ष्मीके हर्षसे पड़ते हुए अश्रुओंकी बूँदें ही हों ॥२०४॥| उस समय कल्पवृक्षोंके पुष्पोंसे उत्पन्न हुए पराग- समूहको कँपाता हुआ और भगवान् के अभिषेक-जलकी बूँदोंको बरसाता हुआ वायु मन्द मन्द बह रहा था || २०५ ॥ उस समय भगवान् वृषभदेव मेरुके समान जान पड़ते थे, देव कुलाचलोंके समान मालूम होते थे, कलश दूधके मेघोंके समान प्रतिभासित होते थे और देवियाँ जलसे भरे हुए सरोवरोंके समान आचरण करती थीं ||२०६ || जिनका अभिषेक करानेवाला स्वयं इन्द्र था, मेरु पर्वत स्नान करनेका सिंहासन था, देवियाँ नृत्य करनेवाली थीं, देव किंकर थे और क्षीरसमुद्र स्नान करनेका कटाह (टब) था । इस प्रकार अतिशय प्रशंसनीय मेरु पर्वतपर जिनका स्नपन महोत्सव समाप्त हुआ था वे पवित्र आत्मावाले भगवान् समस्त जगत्को पवित्र करें ।।२०७-२०८ ।।
अथानन्तर पवनकुमार जातिके देव अपनी उत्कृष्ट भक्तिको प्रत्येक दिशाओं में वितरण करते हुए के समान धीरे-धीरे चलने लगे और मेवकुमार जातिके देव उस मेरु पर्वतसम्बन्धी भूमिपर अमृतसे मिले हुए जलके छींटोंकी अखण्ड धारा छोड़ने लगे - मन्द मन्द जलवृष्टि करने
३०१
१. परिसमाप्ती । निवृत्ता- अ०, प०, स० म०, ल० । २. विहितयजनमन्तरक्रियमाणस्नानाः । ३. अर्चयन्ति स्म । ४. पूजयामासुः । ५. विहितपूजा: । ६. निर्वर्तयन्ति स्म । ७. कल्पवृक्ष । ८. सरोवरायिताः । ९. स्नानकारी । १०. स्नानपीठः अ०, स०, ल० । स्नानपीठं द० । ११. स्नानकटाहः । १२. निर्वर्तितः । १३. आत्मीयाम् । १४. प्रभूता । १५. विचरन्ति स्म । १६. मेघकुमाराः । १७. मेरुसम्बन्धिनीषु ।