________________
३००
आदिपुराणम् कनरकनकभृङ्गारनालाद्धारा पतन्त्यसौ । रेजे भक्तिमरेणैव जिनमानन्तु मुथता ॥१८॥ विमोदेहप्रभोरसस्तडिदापिअरस्तता । साभाद् विमावसौ दीप्ते प्रयुक्नेव घृताहुतिः ॥१८९॥ निसर्गसुरभिण्यङ्गे विभोरस्यन्तपावने । पतित्वा चरितार्था सा स्वसादकृत तद्गुणान् ॥१५॥ सुगन्धिकुसुमैर्गन्धद्रव्यैरपि सुवासिता । साधानतिशयं कंचिद् विभोरङ्गेऽम्मसां ततिः ॥१९॥ समस्ताः पूरयन्त्याशा जगदानन्ददायिनी । वसुधारेव धारासौ क्षीरधारा मुदेऽस्तु नः ॥१९२॥ या पुण्यात्रवधारेव सूते संपत्परम्पराम् । सास्मान्गन्धपयोधाराधिनोस्वनिधन धनैः ॥१९३।। या निशातासिधारेव विघ्नवर्ग विनिम्नती । पुण्यगन्धाम्मसां धारा सा शिवाय सदास्तु नः ॥१९४॥ माननीया मुनीन्द्राणां जगतामेकपावनी। साच्याद गन्धाम्बुधारास्मान् या स्म ब्योमापगायते ॥१९५॥ तनुं भगवतः प्राप्य याता यातिपवित्रिताम् । पवित्रयतु नः स्वान्तं धास गन्धाम्भसामसौं ॥१९६॥ कृत्वा गन्धोदकरित्यममिपेकं सुरोत्तमाः। जगतां शान्तये शान्ति घोषयामासुरुच्चकैः ॥१९७।। प्रचक्रुरुत्तमाङ्गेषु चक्रः सर्वाङ्गसंगतम् । स्वर्गस्योपायनं चक्रस्तद्धाम्बुदिवौकसः ।।१९८॥
गन्धाम्बुस्नपनस्यान्ते जयकोलाहलैः समम् । "व्यात्युक्षीममराश्चक्रुः सचूर्णर्गन्धवारिमिः ॥ १९९॥ मुख किये हुई ) हो गयी हो ॥१८७।। देदीप्यमान सुवर्णकी झारीके नालसे पड़ती हुई वह सुगन्धित जलकी धारा ऐसी शोभायमान होती थी मानो भक्तिके भारसे भगवान्को नमस्कार करनेके लिए ही उद्यत हुई हो ॥१८८।। बिजलोके समान कुछ-कुछ पीले भगवान के शरीरकी प्रभाके समूहसे व्याप्त हुई वह धारा ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो जलती हुई अग्निमें घीको आहुति ही डाली जा रही हो ॥१८९।। स्वभावसे सुगन्धित और अत्यन्त पवित्र भगवान्के शरीरपर पड़कर वह धारा चरितार्थ हो गयी थी और उसने भगवानके उक्त दोनों ही गुण अप अधीन कर लिये थे-ग्रहण कर लिये थे ॥१९०॥ यद्यपि वह जलका समूह सुगन्धित फूलों
और सुगन्धित द्रव्योंसे सुवासित किया गया था तथापि वह भगवान्के शरीरपर कुछ भी विशेषता धारण नहीं कर सका था-उनके शरीरकी सुगन्धिके सामने उस जलकी सुगन्धि तुच्छ जान पड़ती थी ।।१९१।। वह दूधके समान श्वेत जलकी धारा हम सबके आनन्दके लिए हो जो कि रत्नोंकी धाराके समान समस्त आशाओं (इच्छाओं और दिशाओं) को पूर्ण करनेवाली तथा समस्त जगत्को आनन्द देनेवाली थी ॥१९२।। जो पुण्यास्रवकी धाराके समान अनेक सम्पदाओंको उत्पन्न करनेवाली है ऐसी वह सुगन्धित जलकी धारा हम लोगोंको कभी नष्ट नहीं होनेवाले रत्नत्रयरूपी धनसे सन्तुष्ट करे ॥१९॥ जो पैनी तलवारकी धारके समान विघ्नोंका समूह नष्ट कर देती है ऐसी वह पवित्र सुगन्धित जलकी धारा सदा हम लोगोंके मोक्षके लिए हो ॥१९४॥ जो बड़े-बड़े मुनियोंको मान्य है, जो जगत्को एकमात्र पवित्र करनेवाली है और जो आकाशगंगाके समान शोभायमान है ऐसी वह मुगन्धित जलकी धारा हम सबकी रक्षा करे॥१९५।। और जो भगवान्के शरीरको पाकर अत्यन्त पवित्रताको प्राप्त हुई है ऐसी वह सुगन्धित जलकी धारा हम सबके मनको पवित्र करे॥१९६।। इस प्रकार इन्द्र सुगन्धित जलसे भगवानका अभिषेक कर जगत्की शान्तिके लिए उच्च स्वरसे शान्ति-मन्त्र पढ़ने लगे ॥१९७।। तदनन्तर देवोंने उस गन्धोदकको पहले अपने मस्तकोंपर लगाया, फिर सारे शरीर में लगाया
और फिर बाकी बचे हुए को स्वर्ग ले जानेके लिए रख लिया ॥१९८।। सुगन्धित जलका अभिषेक समाप्त होनेपर देवोंने जय-जय शब्दके कोलाहलके साथ-साथ चूर्ण मिले हुए सुगन्धित
१. नमस्कर्तुम् । २. अग्नौ । ३. स्वाधीनमकरोत् । ४. तदङ्गसौगन्ध्यसौकुमार्यादिगुणान् । ५. प्रीणयतु । ६. रत्नत्रयात्मकधनैः । ७. विनाशयती। ८. नित्यमुखाय । ९. रक्षतु । १०. शान्तिमन्त्रम् । ११. अन्योन्यजलसेचनम् ।