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त्रयोदशं पर्व जिनजन्माभिषेकार्थ प्रतिबद्धैनिदर्शनः । नाव्यवेदं प्रयुआने 'सुरशैलूषपेटके ॥१७॥ गन्धर्वारब्धसंगीतमृदङ्गध्वनिमूञ्छिते । दुन्दुमिध्वनित मन्द्रे श्रोत्रानन्दं प्रतन्वति ॥१७॥ कुचकुम्भैः सुरस्त्रीणां कुङ्कुमारलंकृते । हाररोचिःप्रसूनौषकृतपुष्पोपहारके ॥१७॥ मेरुरङ्गेऽप्सरोवृन्दे सलील परिनृत्यति । करणरजहारै सलयैश्च परिक्रमैः ।।१७९॥ शृण्वस्सु मङ्गलोद्दीतीः सावधानं सुधाशिपु" । वृत्तेषु जनजल्पेषु जिनप्राभवशंसिषु ॥१४॥ नान्दीतूर्यरवे विश्वगापूरयति रोदसी । जयघोषप्रतिध्वानः स्तुवान इव मन्दरे ॥१८॥ सञ्चरस्खचरी' वक्त्रधर्माम्बुकणचुम्बिनि । "धुतोपान्तवने वाति मन्दं मन्द"नमस्वति ।।१८२॥ सुरदौवारिकैश्चित्रवेत्रदण्डधरैर्मुहुः । "सामाजिकजने विध्व' सार्यमाणे सहुस्कृतम् ॥१८॥ तस्समुत्सारणत्रासान्मूकीमावमुपागते । “अनियुक्तजने सचश्चित्रार्पित इव स्थिते ॥१८॥ शुद्धाम्धुस्नपने निष्ठ गते गन्धाम्बुमिः शुभैः । ततोऽभिषेनुमीशान "शतयज्वा प्रचक्रम ॥१८५।।
[दशभिः कुलकम् ] . श्रीमगन्धोदकैव्यैर्गन्धाहतमधुवतैः । अभ्यषिञ्चद् विधानको विधातारं शताध्वरः ।।१८।।
पूता गन्धाम्बुधारासावापतन्ती तनौ विमोः । तद्गन्धातिशयात् प्राप्तलग्जेवासीदवामुखी ॥१४॥ कर रहे थे ।।१७५।। जब नृत्य करनेवाले देवोंका समूह जिनेन्द्रदेवके जन्मकल्याणकसम्बन्धी अर्थोंसे सम्बन्ध रखनेवाले अनेक उदाहरणोंके द्वारा नाट्यवेदका प्रयोग कर रहा था-नृत्य कर रहा था ॥१७६।। जब गन्धर्व देवोंके द्वारा प्रारम्भ किये हुए संगीत और मृदंगकी ध्वनिसे मिला हुआ दुन्दुभि बाजोंका गम्भीर शब्द कानोंका आनन्द बढ़ा रहा था ।।१७७।। जब केसर लगे हुए देवांगनाओंके स्तनरूपी कलशोंसे शोभायमान तथा हारोंकी किरणरूपी पुष्पोंके उपहारसे युक्त सुमेरु पर्वतरूपी रंगभूमिमें अप्सराओंका समूह हाथ उठाकर,शरीर हिलाकर और तालके साथ-साथ फिरकी लगाकर लीलासहित नृत्य कर रहा था ॥१७८-१७९।। जब देव लोग सावधान होकर मंगलगान सुन रहे थे और अनेक जनोंके बीच भगवान्के प्रभावको प्रशंसा करनेवाली बात-चीत हो रही थी॥१८०॥ जब नान्दी, तुरही आदि बाजोंके शब्द सब ओर आकाश और पृथिवीके बीचके अन्तरालको भर रहे थे, जब जय-घोषणाकी प्रतिध्वनियोंसे मानो मेरु पर्वत ही भगवान्की स्तुति कर रहा था ॥ १८२।। जब सव ओर घूमती हुई विद्याधरियोंके मुखके स्वेदजलके कणोंका चुम्बन करनेवाला वायु समीपवर्ती वनोंको हिलाता हुआ धीरे-धीरे बह रहा था ॥१८२॥ जब विचित्र वेत्रके दण्ड हाथमें लिये हुए देवोंके द्वारपाल सभाके लोगोंको हुंकार शब्द करते हुए चारों ओर पीछे हटा रहे थे ॥१८॥ 'हमें द्वारपाल पीछे न हटा दें' इस डरसे कितने ही लोग चित्रलिखितके समान जब चुपचाप बैठे हुए थे ॥१८॥ और जब शुद्ध जलका अभिषेक समाप्त हो गया था तब इन्द्रने शुभ सुगन्धित जलसे भगवानका अभिषेक करना प्रारम्भ किया ॥१८५|| विधिविधानको जाननेवाले इन्द्रने अपनी सुगन्धिसे भ्रमरोंका आह्वान करनेवाले सुगन्धित जलरूपी द्रव्यसे भगवानका अभिषेक किया.॥१८६।। भगवानके शरीरपर पड़ती हुई वह सुगन्धित जलकी पवित्र धारा ऐसी मालूम होती थी मानो भगवानके शरीरकी उत्कृष्ट सुगन्धिसे लज्जित होकर ही अधोमुखी (नीचेको
१. सम्बद्धः । २. भूमिकाभिः। ३. नाटयशास्त्रम् । ४. देवनर्तकबन्दे । 'शैलालिनस्तु शैलषजाया जोवाः कृशाश्विनः' इत्यभिधानात् । बहरूपाख्यनत्यविशेषविधायिन इत्यर्थः । ५. मिश्रिते । ६.कूकूमाक्तैः ५०, द०, म०, ल०। ७. करन्यासः । ८. अङ्गविक्षेपः । ९. तालमानसहितः । १०. पादविन्यासैः । ११. देवेषु । १२. भम्याकाशे। १३. संचरत्खेचरी-ल.। १४. धूतोपान्त-10,, म०, ल०। १५. पवने । १६. सभाजने । १७. उत्सार्यमाणे। १८. स्वरमागत्य नियोगमन्तरेण स्थितजने। १९. निर्वाणं पर्याप्तिमित्यर्थः । २०. सर्वज्ञम् । २१. इन्द्रः। २२. प्रारेभे। श्लोकोऽयमहदासकविना स्वकीयपुरुदेवचम्भूकाव्यस्य पञ्चमस्तबकस्य एकादशतमश्लोकतां नीतः। २३. -दिव्य-स०, द० । २४. अधोमुखी।