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त्रयोदशं पवं
न मेरुरयमुत्फुल्लनमेरुतरुराजितः । 'राजतो गिरिरेष स्यादुल्लसद्भिसपाण्डरः ॥१५३॥ पीयूषस्यैव राशिनुं स्फाटिको नु शिलोच्चयः । सुधाधवलितः किं नु प्रासादविजगच्छ्रियः ॥ १५४ ॥ वितर्कमिति तन्वानो गिरिराजे पयःप्लवः । व्यानशे 'विश्वदिक्कान्तो दिक्कान्ताः स्नपयनिव ॥ १५५ ॥ ऊर्ध्वमुच्चलिताः केचित् शीकरा विश्वदिग्गताः । श्वेतच्छत्रश्रियं मेरोरा तेनुर्विधुनिर्मलाः || १५६ ।। हारनीहारकह्लारकुमुदाम्भोजसचिषः । प्रावर्त्तन्त पयःपूरा यशः पूरा इवार्हतः ॥ १५७ ॥ गगनाङ्गपुष्पोपहारा हारामलत्विषः । दिग्वधूकर्णपूरास्ते बभुः स्नपानाम्बुशीकराः ॥१५३॥ शीकरैरात्रिरन्नाकमालोकान्तविसर्पिभिः । ज्योतिर्लोकमनुप्राप्य जजृम्भे सोऽम्भसां प्लयः ||१५९|| स्नानपूरे निमग्नाङ्गयस्तारास्तरलरोचिषः । मुक्ताफलश्रियं भेजुर्विप्रकीर्णाः समन्ततः ।। १६० ।। तारकाः क्षणमध्यास्य स्नानपूरं विनिस्सृताः । पयोलवस्रुत' रेजुः करकाणामित्रालयः ॥ १६१।। स्नानाम्भसि बभौ भास्वान् तत्क्षणं कृतनिर्वृतिः । तप्तः पिण्डो महाँलोहः पानोयमिव पायितः ॥ १६२ ॥ पयःपूरे वहत्यस्मिन् श्वेतमानु" मान्यत । जरद्धंस इवोदृढ जडिमा मन्थरं तरन् ।। १६३।।
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जैसे उसे पहले कभी देखा ही न हो ।।१५२।। उस समय वह पर्वत शोभायमान मृणालके समान सफेद हो रहा था और फूले हुए नमेरु वृक्षोंसे सुशोभित था इसलिए यही मालूम होता था कि वह मेरु नहीं है किन्तु कोई दूसरा चाँदीका पर्वत है || १५३ || क्या यह अमृतकी राशि है ? अथवा स्फटिकमणिका पर्वत है ? अथवा चूनेसे सफेद किया गया तीनों जगत्की लक्ष्मीका महल है - इस प्रकार मेरु पर्वत के विषयमें वितर्क पैदा करता हुआ वह जलका प्रवाह सभी दिशाओंके अन्त तक इस प्रकार फैल गया मानो दिशारूपी स्त्रियोंका अभिषेक ही कर रहा हो ।।१५४-१५५।। चन्द्रमाके समान निर्मल उस अभिषेकजलकी कितनी ही बूँदें ऊपरको उछलकर सब दिशाओं में फैल गयी थीं जिससे ऐसी जान पड़ती थीं मानो मेरु पर्वतपर सफेद छत्रकी शोभा ही बढ़ा रही हों ॥ १५६ ॥ हार, बर्फ, सफेद कमल और कुमुद्रोंके समान सफेद जलके प्रवाह सब ओर प्रवृत्त हो रहे थे और वे ऐसे जान पड़ते थे मानो जिनेन्द्र भगवान् के यशके प्रवाह ही
॥ १५७॥ हारके समान निर्मल कान्तिवाले वे अभिषेकजलके छींटे ऐसे मालूम होते थे मानो आकाशरूपी आँगन में फूलोंके उपहार ही चढ़ाये गये हों अथवा दिशारूपी स्त्रियोंके कानोंके कर्णफूल ही हों ||१५|| वह जलका प्रवाह लोकके अन्त तक फैलनेवाली अपनी बूँदोंसे ऊपर स्वर्ग तक व्याप्त होकर नीचेकी ओर ज्योतिष्पटल तक पहुँचकर सब ओर वृद्धिको प्राप्त हो गया था ॥ १५९।। उस समय आकाशमें चारों ओर फैले हुए तारागण अभिषेकके जलमें डूबकर कुछ चंचल प्रभाके धारक हो गये थे इसलिए बिखरे हुए मोतियोंके समान सुशोभित हो रहे थे || १६० || वे तारागण अभिषेकजल के प्रवाह में क्षण-भर रहकर उससे बाहर निकल आये थे परन्तु उस समय भी उनसे कुछ-कुछ पानी चू रहा था इसलिए ओलोंकी पङ्क्तिके समान शोभायमान हो रहे थे || १६१|| सूर्य भी उस जलप्रवाह में क्षण-भर रहकर उससे अलग हो गया था, उस समय वह ठण्डा भी हो गया था जिससे ऐसा मालूम होता था मानो कोई तपा हुआ लोहेका बड़ा भारी गोला पानीमें डालकर निकाला गया हो || १६२ || उस बहते हुए जलप्रवाह में चन्द्रमा ऐसा मालूम होता था मानो ठण्डसे जड़ होकर (ठिठुरकर) धीरे-धीरे तैरता हुआ एक बूढ़ा हंस ही हो || १६३ | | उस समय ग्रहमण्डल भी चारों ओर फैले हुए जलके प्रवाहसे आकृष्ट होकर (खिंचकर ) विपरीत गतिको प्राप्त हो गया था। मालूम होता है कि उसी कारण से
१. रजतमय: । २. सद्विसपाण्डुरः अ०, प०, ल०, ट० । विसवद्धवलः । ३. पर्वतः । ४. विश्व दिपर्यन्तः । ५ दिग्नताः स० । ६. स्रवन्तः । ७. वर्षोपलानाम् । 'वर्षोपलस्तु करक:' इत्यभिधानात् । ८. पङक्तयः । ९. तत्क्षणात् १० द० । १०. कृतसुखः । ११. चन्द्रः । १२. धृतजडत्वम् । १३. मन्दं मन्दम् ।
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