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त्रयोदशं पर्व
२९५ - स्फाटिक स्नानपीठे तत् स्वच्छशोमममाजलम् । मर्तुः पादप्रसादन प्रसेदिवदिवाधिकम् ॥१३॥ रत्नांशुभिः कचिद् व्याप्तं विचित्रैस्तद्बभौ पयः । चापमैन्द्रं द्रवीभूय पयोभावमिवागतम् ॥१३५।। कचिन्महोपलोत्सर्पत्प्रमामिररुणीकृतम् । संध्याम्बुदद्वच्छायां भेजे तत्पावनं वनम् ॥१३६।। हरिनीलोपलच्छायाततं क्वचिददो जलम् । तमो घनमिबैकत्र निलीनं समदृश्यत ॥१३७॥ कचिन्मरकतामी प्रतानैरनुरञ्जितम् । हरितांशुकसच्छायमभवत् स्नपनोदकम् ॥१३॥ तदम्बुशीकरव्योम समाक्रामदिराबभौ । जिनाङ्गस्पर्शसंतोषात् प्रहासमिव नाटयत् ।।१३९॥ स्नानाम्बुशीकराः केचि दायुसीमविलशिनः । न्यात्युक्षी स्वर्गलक्ष्म्येव क कामाश्चकाशिरे ।।१४०॥ विष्वगुञ्चलिताः काश्चिदप्छटा रूद्धदिक्तटाः । व्यावहासीमिवानन्दाद् दिग्वधूमिः समं न्यधुः ॥१४॥ दूरमुत्सारयन् स्वैरमासीनान् सुरदम्पतीन् । स्नानपूरः स पर्यन्ता न्मेरोराशिश्रियद् द्रतम् ॥१४२॥ उदभारः" पयोवार्द्धरापतन्मन्दरादधः । आभूतलं तदुन्मानं मिमान इव दिद्यते ॥१४३।। गुहामुखैरिवापीतः शिखरैरिव खारकृतः । कन्दरैरिव निष्ठयत: "प्रार्नोन्मेरौ पयःप्लवः ।।१४४॥
मूंगाके अंकुरोंसे ही व्याप्त हो रहा हो ॥१३३॥ स्फटिक मणिके बने हुए निर्मल सिंहासनपर जो स्वच्छ जल पड़ रहा था वह ऐसा मालूम होता था मानो भगवान्के चरणोंके प्रसादसे और भी अधिक स्वच्छ हो गया हो॥१३४॥ कहींपर चित्र-विचित्र रत्नोंकी किरणोंसे व्याप्त हुआ वह जल ऐसा शोभायमान होता था, मानो इन्द्रधनुष ही गलकर जलरूप हो गया हो ।।१३५।। कहींपर पद्मरागमणियोंकी फैलती हुई कान्तिसे लाल-लाल हुआ वह पवित्र जल सन्ध्याकालके पिघले हुए बादलोंको शोभा धारण कर रहा था ॥ १३६ ।। कहींपर इन्द्रनीलमणियोंको कान्तिसे व्याप्त हुआ वह जल ऐसा दिखाई दे रहा था मानो किसी एक जगह छिपा हुआ गाढ़ अन्धकार ही हो ।। १३७ ।। कहींपर मरकतमणियों (हरे रंगके मणियों ) की किरणोंके समूहसे मिला हुआ वह अभिषेकका जल ठीक हरे वस्त्रके समान हो रहा था । १३८ ॥ भगवानके अभिषेक जलके उड़ते हुए छींटोंसे आकाश ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो भगवान्के शरीरके स्पर्शसे सन्तुष्ट होकर हँस ही रहा हो।। १३९ ।। भगवान के स्नान-जलकी कितनी ही बूंदें आकाशकी सीमाका उल्लंघन करती हुई ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानो स्वर्गकी लक्ष्मीके साथ जलक्रीड़ा (फाग) ही करना चाहती हों ।। १४० ॥ सब दिशाओंको रोककर सब ओर उछलती हुई कितनो ही जलकी बूंद ऐसी मालूम होती थीं मानो आनन्दसे दिशारूपी स्त्रियों के साथ हँसी ही कर रही हों॥१४१।। वह अभिषेकजलका प्रवाह अपनी इच्छानुसार बैठे हुए सुरदम्पतियोंको दूर हटाता हुआ शीघ्र ही मेरुपर्वतके निकट जा पहुँचा ॥१४२॥ और मेरु पर्वतसे नीचे भूमि तक पड़ता हुआ वह क्षीरसागरके जलका प्रवाह ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो मेरु पर्वतको खड़े नापसे नाप ही रहा हो ।। १४३ ।। उस जलका प्रवाह मेरु पर्वतपर ऐसा बढ़ रहा था मानो शिखरोंके द्वारा स्वकारकर दूर किया जा रहा हो, गुहारूप मुखोंके द्वारा पिया
१. प्रसन्नतावत् । २. पद्मरागमाणिक्यम् । ३. पवित्र जलम् । ४. किरणसमूहः । 'अभीषुः प्रग्रहे रश्मो' इत्यभिधानात् । ५. आकाशावधिपर्यन्तम् । ६. अन्योन्यजलसेचनम् । ७. जलवेण्यः। ८. अन्योन्यहसनम् । -ज्यापहासो- अ०, ५०, द०, स० । म० पुस्तके द्विविधः पाठः । ९. दधुः स०, द० । १०. परिसरान् । 'पर्यन्तभूः परिसरः' इत्यभिधानात् । ११. जलप्रवाहः । १२. मेरोरुत्सेधप्रमाणम् । १३. खात्कारं कृत्वा निष्ठय तः । सस्वनं दूरं निष्ठ्य त इत्यर्थः । १४. अवृषत् । 'ऋधू वृद्धौ' ।