________________
त्रयोदशं पर्व
२९३ पूतं स्वायम्भुवं गात्रं स्पष्टु क्षीराच्छशोणितम् । नान्यदस्ति जलं योग्यं क्षीराब्धिसलिलाहते ॥१११॥ मत्वेति नाकिमिनमनूनप्रमदोदयैः । पञ्चमस्यार्णवस्याम्मः स्नानीयमुपकल्पितम् ॥११२॥ अष्टयोजनगम्भीरैर्मुखे योजनविस्तृतैः । प्रारंभे काञ्चनैः कुम्भैः जन्माभिषवणोत्सवः ॥१३॥ महामाना विरेजुस्ते सुराणामुद्दताः करैः । कलशाः कल्मषोन्मेषमोषिणो विघ्नकाषिणः ॥११४॥ प्रादुरासन्नभोभागे स्वर्णकुम्मा धृतार्णसः । मुक्ताफलाञ्चितग्रीवाश्चन्दनद्रवचर्चिताः ॥११५॥ तेषामन्योऽन्यहस्ताग्रसंक्रान्तै लपूरितैः । कलशानशे व्योमहैमैः सांध्यैरिवाम्बुदैः ॥११६॥ *विनिर्ममे बहून् बाहून तानादित्सुः शताध्वरः । स तैः साभरणभेंजे भूषणाङ्ग इवाङ्घ्रिपः ॥११॥ दोःसहस्रोतैः कुम्भैः रोक्मैर्मुक्ताफलाचितैः । भेजे पुलोमजाजानिः माजनाङ्गमोपमाम् ॥११॥ जयति प्रथमां धारां सौधर्मेन्द्रो न्यपातयत् । तथा कलकलो भूयान् प्रचक्रे सुरकोटिमिः ॥११९॥ सैषा धारा जिनस्याधिमूई रेजे पतन्त्यपाम् । हिमाद्रेः शिरसीवोचर "च्छिन्ना म्नगा ॥१२॥
ततः कल्पेश्वरैः सर्वेः समं धारा निपातिताः । संध्याभैरिव सौवर्णैः कलशैरम्बुसंभृतैः ॥१२१॥ निकले ।।११०|| 'जो स्वयं पवित्र है और जिसमें रुधिर भी भीरके समान अत्यन्त स्वच्छ है ऐसे भगवान्के शरीरका स्पर्श करनेके लिए क्षीरसागरके जलके सिवाय अन्य कोई जल योग्य नहीं है ऐसा मानकर ही मानो देवोंने बड़े हर्षके साथ पाँचवें क्षीरसागरके जलसे ही भगवान्का अभिषेक करनेका निश्चय किया था ॥१११-११२॥ आठ योजन गहरे, मुखपर एक योजन चौड़े (और उदर में चार योजन चौड़े) सुवर्णमय कलशोंसे भगवान के जन्माभिषेकका उत्सव प्रारम्भ किया गया था ॥११३।। कालिमा अथवा पापके विकासको चुरानेवाले, विघ्नोंको दूर करनेवाले और देवोंके द्वारा हाथों-हाथ उठाये हुए वे बड़े भारी कलश बहुत ही सुशोभित हो रहे थे ॥११४।। जिनके कण्ठभाग अनेक प्रकारके मोतियोंसे शोभायमान हैं, जो घिसे हुए चन्दनसे चर्चित हो रहे हैं और जो जलसे लबालब भरे हुए हैं ऐसे वे सुवर्ण-कलश अनुक्रमसे आकाशमें प्रकट होने लगे ॥११॥ देवोंके परस्पर एकके हाथसे दूसरेके हाथमें जानेवाले और जलसे भरे हुए उन सुवर्णमय कलशोंसे आकाश ऐसा व्याप्त हो गया था मानो वह कुछ-कुछ लालिमायुक्त सन्ध्याकालीन बादलोंसेही व्याप्त हो गया हो ॥२१६।। उन सब कलशोंको हाथमें लेने की इच्छासे इन्द्रने अपने विक्रिया-बलसे अनेक भुजाएँ बना ली। उस समय आभूषणसहित उन अनेक भुजाओंसे वह इन्द्र ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो भूषणांग जातिका कल्पवृश्न ही हो ॥११७।। अथवा वह इन्द्र एक साथ हजार भुजाओं-द्वारा उठाये हुए और मोतियोंसे सुशोभित उन सुवर्णमय कलशोंसे ऐसा शोभायमान होता था मानो भाजनांग जातिका कल्पवृक्ष ही हो ॥११८।। सौधर्मेन्द्रने जय-जय शब्दका उच्चारण कर भगवान्के मस्तकपर पहली जलधारा छोड़ी उसी समय जय जय जय बोलते हुए अन्य करोड़ों देवोंने भी बडा भारी कोलाहल किया था॥११९॥ जिनेन्द्रदेवके मस्तकपर पडती हई वह जलकी धारा ऐसी शोभायमान होती थी मानो हिमवान् पर्वतके शिखरपर ऊँचेसे पड़ती हुई अखण्ड जलवाली आकाशगंगा ही हो ॥१२०॥ तदनन्तर अन्य सभी स्वर्गाके इन्द्रोंने सन्ध्या समयके बादलोंके समान शोभायमान, जलसे भरे हुए सुवर्णमय कलशोंसे भगवान्के मस्तकपर एक साथ जलधारा छोड़ी । यद्यपि वह जलधारा भगवान्के मस्तकपर ऐसी पड़ रही थी मानो गंगा सिन्धु
१. छेदकालादिदोषप्राकटयरहिताः । २. विघ्ननाशकाः । विघ्नकर्षिणः अ० | विघ्नकार्षिणः स०, म०, प०। ३. धृतजलाः । ४. विनिर्मितवान् ९. पुल.शान् । ६. स्वीकर्तुमिच्छुः। ७. बाहुभिः। ८.-भेजे अ०, ५०, स० म०, ल०। ५. कलोमजा जाया यस्थासौ, इन्द्र इत्यर्थः । १०. भाजनाङ्गसमो-ल. । ११. -२च्छिन्नाम्बुद्यु--ब०, प० । १२. युगपत् ।