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चतुर्दशं पर्व अथाभिषेकनिवृत्तौ शची देवी जगद्गुरीः । प्रसाधनविधौ यत्नमकरोत् कृतकौतुका ॥१॥ तस्याभिषिक्तमात्रस्य दधत: पावनी तनुम् । साङ्गलग्नान्ममार्जाम्भःकणान् स्वच्छामलांशुकैः ॥२॥ "स्वासनापाङ्गसंक्रान्तसितच्छायं विभोर्मुखम् । प्रमृष्टमपि सामाीद भूयो जलकणास्थयाँ ॥३॥ गन्धः सुगन्धिमिः सान्द्ररिन्द्राणी गात्रमीशितुः । अन्वलिम्पत लिम्पद्भिरिवामोदैनिविष्टपम् ॥४॥ गन्धेनामोदिना भर्तुः शरीरसहजन्मना । गन्धास्ते न्यकृता' एक सौगन्ध्येनापि संश्रिताः ॥५॥ तिलकं च ललाटेऽस्य शची चक्रे किलादरात् । जगतां तिलकस्तेन किमलंक्रियते विभुः ॥६॥ मन्दारमालयोत्तंस मिन्द्राणी विदधे विभोः । तयालंकृतमूर्दासौ कीत्येव व्यरुचद् भृशम् ॥७॥ जगच्चूडामणेरस्य मूनि चूडामणि न्यधात् । सतां मूर्धाभिषिक्तस्य' पौलोमी भकिनिर्भरा ॥८॥
अनअितासिते मर्तोंचने सान्द्रपक्ष्मणी । पुनरञ्जनसंस्कारमाचार इति लम्भिते ॥९॥ कर्णावविद्धसच्छिद्रौ कुण्डलाभ्यां विरेजतुः । कान्तिदीप्ती मुखे द्रष्टुमिन्द्वाभ्यामिवाश्रिती ॥१०॥ हारिणा मणिहारेण कण्ठशोभा महस्यभूत् । मुक्तिश्रीकण्ठिकादाम 'चारुणा त्रिजगत्पतेः ॥११॥
अथानन्तर, जब अभिषेककी विधि समाप्त हो चुकी तब इन्द्राणी देवीने हर्षके साथ जगद्गुरु भगवान् वृषभदेवको अलंकार पहनानेका प्रयत्न किया ॥१॥ जिनका अभिषेक किया जा चुका है ऐसे पवित्र शरीर धारण करनेवाले भगवान वृषभदेवके शरीरमें लगे हुए जलकणोंको इन्द्राणीने स्वच्छ एवं निर्मल वस्त्रसे पोंछा ।।२।। भगवान्के मुखपर, अपने निकटवर्ती कटाक्षोंकी जो सफेद छाया पड़ रही थी उसे इन्द्राणी जलकण समझती थी। अतः पोंछे हुए मुखको भी वह बार-बार पोंछ रही थी॥३॥ अपनी सुगन्धिसे स्वर्ग अथवा तीनों लोकोंको लिप्त करनेवाले अतिशय सुगन्धित गाढ़े सुगन्ध द्रव्योंसे उसने भगवान्के शरीरपर विलेपन किया था॥४॥ यद्यपि वे सुगन्ध द्रव्य उत्कृष्ट सुगन्धिसे सहित थे तथापि भगवान्के शरीरकी स्वाभाविक तथा दूर-दूर तक फैलनेवाली सुगन्धने उन्हें तिरस्कृत कर दिया था ।।५।। इन्द्राणीने बड़े
आदरसे भगवान्के ललाटपर तिलक लगाया परन्तु जगत्के तिलक-स्वरूप भगवान् क्या उस तिलकसे शोभायमान हुए थे ? ॥६॥ इन्द्राणीने भगवान्के मस्तकपर कल्पवृक्षके पुष्पोंकी मालासे बना हुआ मुकुट धारण किया था। उन मालाओंसे अलंकृतमस्तक होकर भगवान ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो कीर्तिसे ही अलंकृत किये गये हों ॥७॥ यद्यपि भगवान् स्वयं जगत्के चूड़ामणि थे और सज्जनोंमें सबसे मुख्य थे तथापि इन्द्राणीने भक्तिसे निर्भर होकर उनके मस्तक पर चूड़ामणि रत्न रखा था ।।८। यद्यपि भगवान्के सघन बरौनीवाले दोनों नेत्र अंजन लगाये बिना ही श्यामवर्ण थे तथापि इन्द्राणीने नियोग मात्र समझकर उनके नेत्रोंमें अंजनका संस्कार किया था ॥९॥ भगवानके दोनों कान बिना वेधन किये ही छिद्रसहित थे, इन्द्राणीने उनमें मणिमय कुण्डल पहनाये थे जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो भगवान्के मुखकी कान्ति और दीप्तिको देखनेके लिए सूर्य और चन्द्रमा ही उनके पास पहुँचे हों ।।१०॥ मोक्ष-लक्ष्मीके गलेके हारके समान अतिशय सुन्दर और मनोहर मणियोंके हारसे त्रिलोकीनाथ भगवान् वृषभदेवके
१. सम्पूर्णे सति । २. अलंकारविधाने । ३. विहितसन्तोषा । ४. श्लक्ष्णनिर्मलाम्बरः। ५. निजनिकटकटाक्षसंक्रमण । ६. साम्राक्षीत् प०। म० पुस्तके द्विविधः। ७. अम्बुबिन्दुबद्धया। ८. अधःकृता । न्यत्कृता अ०, ८०, म०, ल०। ९. समानगन्धत्वेन । १०. शेखरम् । ११. श्रेष्ठस्य । १२. भक्त्यतिशया । १३. अजनम्रक्षमन्तरेण कृष्णे । १४. प्रापिते । इति रञ्जिते स० । १५. कण्ठमाला।