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आदिपुराणम् सपदि विधुतकरूपानोकहैयोमगङ्गा
. शिशिरतरतरङ्गोरक्षेपदक्षमहद्भिः । तटवनमनुपुष्पाण्याहरनिः समन्तात् ।
परगतिमिव कत्तुं बभ्रमे शैलभर्तुः ॥२१०॥ अनुचितमशिबाना स्थातुमय त्रिलोक्यां
जनयति शिवमस्मिन्नुस्सवे विश्वमर्तुः । इति किल शिवमुच्चयोंषयन् दुन्दुमीनां
सुरकरनिहतानां शुश्रुवे मन्द्रनादः ॥२३॥ सुरकुजकुसुमानां वृष्टिरापप्तदुच्च
रमरकरविकीर्णा विश्वगाकृष्टभृङ्गा । जिनजनन सपर्यालोकनार्थ समन्ता
नयनततिरिवाविर्माविता स्वर्गलक्षया ॥२१२॥
शार्दूलविक्रीडितम् इत्थं यस्य सुरासुरैः प्रमुदितैर्जन्माभिषेकोत्सव
धके शक्रपुरस्सरैः सुरगिरो भीराणवस्याम्बुभिः । नृस्यम्ती सुराजनासु सलयं नानाविधास्यकैः ।
स श्रीमान् वृषभो जगत्त्रयगुरू याजिनः पावनः ॥२१॥ 'जम्मानन्तरमेव यस्य मिलितैर्देवा सुराणां गणैः
नानायानविमानपत्तिनिवहन्यारूद्धरोदोमणैः । क्षीराब्धेः समुपाहतैः शुचिजलैः कृत्वाभिषेकं विभोः
____ मेरोमूर्धनि जातकर्म विदधे सोऽम्याज्जिनो नोऽग्रिमः ।।२१४॥ लगे।।२०९॥ जो वायु शीघ्र ही कल्पवृक्षोंको हिला रहा था, जो आकाशगंगाकी अत्यन्त शीतल तरङ्गाके उड़ानेमें समर्थ था और जो किनारेके वनोंसे पुष्पोंका अपहरण कर रहा था ऐसा वायु मेरु पर्वतके चारों ओर घूम रहा था और ऐसा मालूम होता था मानो उसकी प्रदक्षिणा हो कर रहा हो॥२१०॥ देवोंके हाथोंसे ताड़ित हुए दुन्दुमि बाजोंका गम्भीर शब्द सुनाई दे रहा था और वह मानो जोर-जोरसे यह कहता हुआ कल्याणकी घोषणा ही कर रहाथा कि जब त्रिलोकीनाथ भगवान् वृषभदेवका जन्ममहोत्सव तीनों लोकोंमें अनेक कल्याण उत्पन्न कर रहा है तब यहाँ अकल्याणोंकारहना अनुचित है ।।२१। उस समय देवोंके हाथसे बिखरे हुए कल्पवृक्षोंके फूलोंकी वर्षा बहुत ही ऊँचेसे पड़ रही थी, सुगन्धिके कारण वह चारों ओरसे भ्रमरोंको खींच रही थी और ऐसी मालूम होती थी मानो भगवानके जन्मकल्याणककी पूजा देखनेके लिए स्वर्गकी लक्ष्मीने चारों ओर अपने नेत्रोंकी पङ्क्ति ही प्रकट की हो ॥२१२|| इस प्रकार जिस समय अनेक देवांगनाएँ तालसहित नाना प्रकारकी नृत्यकलाके साथ नृत्य कर रही थीं उस समय इन्द्रादि देव और धरणेन्द्रोंने हर्षित होकर मेरु पर्वतपर क्षीरसागरके जलसे जिनके जन्माभिषेकका उत्सव किया था वे परम पवित्र तथा तीनों लोकोंके गरु श्रीवृषभनाथ जिनेन्द्र सदा जयवन्त हो ॥२१३।। जन्म होनेके अनन्तर ही नाना प्रकारके वाहन, विमान और पयादे आदिके द्वारा आकाशको रोककर इकट्ठे हुए देव और असुरोके समूहने मेरु पर्वतके मस्तकपर लाये हुए क्षीरसागरके पवित्र जलसे जिनका अभिषेक कर
१. कम्पित । २. प्रदक्षिणगमनम् । ३. अमङ्गलानाम् । ४. पूजा । ५. नाट्यकैः । ६. उत्पत्त्यनन्तरम् । ७. गगनाङ्गणः। ८. उपानीतैः ९. वोऽग्रिमः ५०, म०, ल.।