________________
त्रयोदशं पर्व जिनानामभिषेकाय या धत्ते सिंहविष्टरम् । मेरोरिवोपरि परं पराध्य मेरुमुच्चकैः ॥४८॥ तत्पर्यन्ते' च या धत्ते सुस्थिते दिव्यविष्टरे । 'जिनामिषेचने क्लसे सौधर्मेशाननाथयोः ॥८९॥ नित्योपहाररुचिरा सुरैनित्यं कृतार्चना । नित्यमङ्गलसंगीतनृत्तवादित्रशोमिनी ॥९॥ छत्रचामरभृङ्गारसुप्रतिष्ठकदर्पणम् । कलशध्वजतालानि मङ्गलानि बिभर्ति या ॥९॥ यामला शीलमालेव मुनीनाममिसम्मता । जैनी तनुरिवात्यन्तमास्वरा सुरमिः शुचिः ॥१२॥ स्वयं धौतापि या धौता शतशः सुरनायकैः । क्षीरार्णवाम्बुमिः पुण्यैः पुण्यस्यवाकरक्षितिः ॥९३॥ यस्याः पर्यन्तदेशेषु"रत्नालोकैर्वितन्यते । परितः सुरचापश्रीरन्योऽन्यम्यतिषनिमिः ॥९॥ तामावेष्ट्य सुरास्तस्थुर्यथास्वं विश्वनुक्रमात् । इष्टुकामा जिनस्या जन्मकल्याणसंपदम् ॥१५॥ दिक्पालाश्च यथायोग्यदिग्विदिग्भागसंश्रिताः । तिष्ठन्ति स्म निकायैः स्वैजिनोत्सवदिदक्षया ॥१६॥ गगनाङ्गणमारुभ्य' ब्याप्य मेरोरधित्यकाम् । निवेशः सुरसैन्यानामभवत् पाण्डके वने ॥१७॥ पाण्डुकं वनमारुद्धं समन्तात् सुरनायकैः । जहासेव दिवो लक्ष्मी मारुहां कुसुमोत्करैः ॥९॥
जाते हैं-पृथक् रूपसे कभी भी प्रकट नहीं दिखते ।। ८७॥ वह पाण्डुकशिला जिनेन्द्रदेवके अभिषेकके लिए सदा बहुमूल्य और श्रेष्ठ सिंहासन धारण किये रहती है जिससे ऐसा जान पड़ता है मानो मेरु पर्वतके ऊपर दूसरा मेरु पर्वत ही रखा हो।। ८८॥ वह शिला उस मुख्य सिंहासनके दोनों ओर रखे हुए दो सुन्दर आसनोंको और भी धारण किये हुए है। वे दोनों आसन जिनेन्द्रदेवका अभिषेक करने के लिए सौधर्म और ऐशान इन्द्रके लिए निश्चित - रहते हैं ।। ८९॥ देव लोग सदा उस पाण्डुकशिलाकी पूजा करते हैं, वह देवों द्वारा चढ़ाई हुई सामग्रीसे निरन्तर मनोहर रहती है और नित्य ही मंगलमय संगीत, नृत्य, वादित्र आदिसे शोभायमान रहती है ।। ९०॥ वह शिला, छत्र, चमर, झारी, ठोना (मोंदरा), दर्पण, कलश, ध्वजा और ताड़का पंखा इन आठ मंगल द्रव्योंको धारण किये हुई है ।। ९१ ।। वह निर्मल पाण्डुकशिला शीलवतकी परम्पराके समान मुनियोंको बहुत ही इष्ट है और जिनेन्द्रदेवके शरीरके समान अत्यन्त देदीप्यमान, मनोज्ञ अथवा सुगन्धित और पवित्र है ।।१२।। यद्यपि वह पाण्डुकशिला स्वयं धौत है अर्थात् श्वेतवर्ण अथवा उज्ज्वल है तथापि इन्द्रोंने क्षीरसागरके पवित्र जलसे उसका सैकड़ों बार प्रक्षालन किया है। वास्तवमें वह शिला पुण्य उत्पन्न करनेके लिए खानकी भूमिके समान है ।। ९३ ॥ उस शिलाके समीपवर्ती प्रदेशोंमें चारों ओर परस्पर में मिले हुए रत्नोंके प्रकाशसे इन्द्रधनुषको शोभाका विस्तार किया जाता है ।।९४॥ जिनेन्द्रदेवके जन्मकल्याणककी विभूतिको देखनेके अभिलाषी देव लोग उस पाण्डुकशिलाको घेरकर सभी दिशाओंमें क्रम-क्रमसे यथायोग्य रूपमें बैठ गये ॥९५॥ दिकपाल जातिके देव भी अपने-अपने समूह (परिवार ) के साथ जिनेन्द्र भगवानका उत्सव देखनेकी इच्छासे दिशा-विदिशामें जाकर यथायोग्य रूपसे बैठ गये ।। ९६ ॥ देवोंकी सेना भी उस पाण्डुक वनमें आकाशरूपी आँगनको रोककर मेरु पर्वतके ऊपरी भागमें व्याप्त होकर जा ठहरी ।।१७।। इस प्रकार चारों ओरसे देव और इन्द्रोंसे व्याप्त हुआ वह पाण्डुक वन ऐसा मालूम होता था मानो वृक्षोंके फूलोंके समूहसे स्वर्गको शोभाकी हँसी ही उड़ा रहा हो॥२८॥
१. तदुभयपालयोः। २. जिनाभिषेकाय । हेतौ 'कर्मणा' इति सूत्रात् । ३ -दर्पणात् द०, स०। ४. तालवन्त । ५. शुभ्रा शुद्धा च । ६. क्षालिता । ७. रत्नोद्योतः। ८. परस्परसंयुक्तः । ९. यथास्थानम् । १०.-माश्रिताः १०, द० । ११. -मारुह्य प० । १२. वाय स० । १३. ऊर्ध्वभूमिम् ।।