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आदिपुराणम् यस्तुङ्गो विबुधाराध्यः सतत समाश्रयः' । सौधर्मेन्द्र इवाभाति संसब्योऽप्सरसा गणैः ॥७९॥ तमासाद्य सुराः प्रापुः प्रीतिमुन्नतिशालिनम् । रामणीयकसंभूति स्वर्गस्याधिदेवताम् ॥४०॥ ततः परीत्य तं प्रीत्या सुरराजः सुरैः समम् । गिरिराजं जिनेन्द्रार्क मूद्धन्यस्य न्यधान्मुदा ॥१॥ तस्य प्रागत्तराशायां महती पाण्डकाहया। शिलास्ति जिननाथानामभिषेक बिमति या ॥२॥ शुचिः सुरभिरत्यन्तरामणीया मनोहरा । पृथिवीवाष्टमी माति या युक्तपरिमण्डला ॥८॥ शतायता तदद्धं च विस्तीर्णाष्टोच्छुितो मता । जिमैयोजनमानेन सा शिलाद्धेन्दुसंस्थितिः ॥४॥.. क्षीरोदवारिमिभूयः क्षालिता या सुरोत्तमैः । शुचित्वस्य परी' का संबिभर्ति सदोज्ज्वला ॥४५॥ शुचित्वान्महनीयत्वात् पवित्रत्वाचे माति या । धारणाच जिनेन्द्राणां जिनमातेव निर्मला ॥८६॥ यस्यां पुष्पोपहारश्री य॑ज्यते जातु नाजसा। "सावादमरोन्मुक्त व्यक्तमुक्ताफलच्छविः ॥७॥
क्रियाके योग्य निर्मल (पाण्डुकादि) शिलाओंको धारण कर रहा है ।।७८।। और जो मेरु पर्वत सौधर्मेन्द्रके समान शोभायमान होता है क्योंकि जिस प्रकार सौधर्मेन्द्र तुंग अर्थात् श्रेष्ठ अथवा उदार है उसी प्रकार वह सुमेरु पर्वत भी तंग अर्थात ऊँचा है, सौधर्मेन्द्रकी जिस प्रकार अनेक विबुध (देव) सेवा किया करते हैं उसी प्रकार मेरु पर्वतकी भी अनेक देव अथवा विद्वान् सेवा किया करते हैं, सौधर्मेन्द्र जिस प्रकार सततर्तुसमाश्रय अर्थात् ऋतुविमानका आधार अथवा छहों ऋतुओंका आश्रय है और सौधर्मेन्द्र जिस प्रकार अनेक अप्सराओंके समूहसे सेवनीय है उसी प्रकार सुमेरु पर्वत भी अप्सराओं अथवा जलसे भरे हुए सरोवरोंसे शोभायमान है।।७।। इस प्रकार जो ऊँचाईसे शोभायमान है, सुन्दरताकी खानि है और स्वर्गका मानो अधिष्ठाता देव ही है ऐसे उस सुमेरु पर्वतको पाकर देव लोग बहुत ही प्रसन्न हुए ।।८०॥
तदनन्तर इन्द्रने बड़े प्रेमसे देवोंके साथ-साथ उस गिरिराज सुमेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा देकर उसके मस्तकपर हर्षपूर्वक श्रीजिनेन्द्ररूपी सूर्यको विराजमान किया।॥१॥ उस मेरु पर्वतके पाण्डुक वनमें पूर्व और उत्तर दिशाके बीच अर्थात् ऐशान दिशा में एक बड़ी भारी पाण्डुक नामकी शिला है जो कि तीर्थकर भगवानके जन्माभिषेकको धारण करती है अर्थात् जिसपर तीर्थकरोंका अभिषेक हुआ करता है ।।२।। वह शिला अत्यन्त पवित्र है, मनोज्ञ है, रमणीय है, मनोहर है, गोल है और अष्टमी पृथिवी सिद्धिशिलाके समान शोभायमान है ।।३।। वह शिला सौ योजन लम्बी है, पचास योजन चौड़ी है, आठ योजन ऊँची है और अर्ध चन्द्रमाके समान आकारवाली है ऐसा जिनेन्द्र देवने माना है-कहा है ।।८४॥ वह पाण्डुकशिला सदा निर्मल रहती है । उसपर इन्द्रोंने क्षीरसमुद्रके जलसे उसका कई बार प्रक्षालन किया है इसलिए वह पवित्रताकी चरम सीमाको धारण कर रही है ।।।। निर्मलता, पूज्यता, पवित्रता और जिनेन्द्रदेवको धारण करनेकी अपेक्षा वह पाण्डुकशिला जिनेन्द्रदेवकी माताके समान शोभायमान होती है ।।८६।। वह शिला देवोंके द्वारा ऊपरसे छोड़े हुए मुक्ताफलोंके समान उज्ज्वल कान्तिवाली है और देव लोग जो उसपर पुष्प चढ़ाते हैं वे सदृशताके कारण उसीमें छिप
१. सततं पड्ऋतुसमाश्रयः । २. जलभरितसरोवरसमूहै। पक्षे स्वर्वेश्यासमहैः। ३. उत्पत्तिम् । ४. -देवतम् प०, मा०, स०, द०। स्वर्गस्येवाधिदैवतम् ल०। ५. स्यापयति स्म । ६. ऐशान्यां दिशि । ७. -रमणीया ब०,१०, अ०, द०, स०। ८. योग्यपरिधिः। ९. शतयोजनदैर्ध्या । १०. -ष्टोच्छ्या स०। ११. संस्थानम् । [ आकार इत्यर्थः ] । १२. परमोत्कर्षम् । १३. पवित्रं करोतीति पवित्रा तस्य भावः । १४. प्रकटीक्रियते । १५. समानवर्णत्वात् १६. -मुक्ताव्य क्तफलच्छविः ।