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आदिपुराणम्
सुरेमरदनोद्भूतस रोम्बुजदलाश्रितम् । नृत्तमप्सरसां देवानकरोद् रसिकान् भृशम् ॥५७॥ शृण्वन्तः कलगीतानि किन्नराणां जिनेशिनः । गुणैर्विरचिताभ्यापुरमराः कर्णयोः फलम् ॥ ५८ ॥ वपुर्भगवतो दिव्यं पश्यन्तोऽनिमिषेक्षणाः । नेत्रयोरनिमेषासौ' फलं प्रापुस्तदामराः ॥५९॥ स्वाङ्कारोपं सितच्छत्रष्टतिं चामरभूननम् । कुर्वन्तः स्वयमेवेन्द्राः 'प्राहुरस्य स्म बैभवम् ॥ ६० ॥ सौधर्माधिपतेरङ्कमध्यासीनमधीशिनम् । भेजे सितातपत्रेण तदैशानसुरेश्वरः ॥ ६१ ॥ सनत्कुमारमाहेन्द्रनायकौ धर्मनायकम् । चामरैस्तं व्यधुम्वातां बहुक्षीराब्धिवचिभिः ॥ ६२ ॥ दृष्ट्वा तदानीं भूर्ति कुदृष्टिमरुतों' परे । सम्मार्गरुचिमातेनुरिन्द्रप्रामाण्यमास्थिताः ॥६३॥ कृतं सोपानमामेरोरिन्द्रनीलेब्र्व्यराजत । भक्त्या खमेव सोपानपरिणाम मिवाश्रितम् ॥ ६१ ॥ ज्योतिःपटलमुक्लत्थ प्रययुः सुरनायकाः । श्रभस्तारकितां वीथि मन्यमानाः कुमुद्वतीम् ॥ ६५ ॥ ततः प्रापुः सुराधीशा गिरिराजं तमुच्छ्रितम् । योजनानां सहस्राणि नवतिं च नबैव च ॥ ६६ ॥ 'मकुटश्रीरिवाभाति चूलिका यस्य मूर्द्धनि । चूडारत्नश्रियं धते यस्यामृतु विमानकम् ॥६७॥
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कान्तिको फीका कर समस्त दिशाओं में फैल गयी थीं ||५६ || ऐरावत हाथोके दाँतोंपर बने हुए सरोवरोंमें कमलदलोंपर जो अप्सराओंका नृत्य हो रहा था वह देवोंको भी अतिशय रसिक बना रहा था ॥५०॥ उस समय जिनेन्द्रदेवके गुणोंसे रचे हुए किन्नर देवोंके मधुर संगीत सुनकर देव लोग अपने कानोंका फल प्राप्त कर रहे थे— उन्हें सफल बना रहे थे ॥५८॥ उस समय टिमकाररहित नेत्रोंसे भगवान्का दिव्य शरीर देखनेवाले देवोंने अपने नेत्रोंके टिमकाररहित होनेका फल प्राप्त किया था । भावार्थ–देवोंकी आँखोंके कभी पलक नहीं झपते । इसलिए देवोंने बिना पलक झपाये ही भगवान्के सुन्दर शरीरके दर्शन किये थे । देव भगवान्के सुन्दर शरीरको पलक झपाये बिना ही देख सके थे यही मानो उनके वैसे नेत्रोंका फल थाभगवानका सुन्दर शरीर देखनेके लिए ही मानो विधाताने उनके नेत्रोंकी पलकस्पन्द- टिमकाररहित बनाया था ||५९ || जिनबालकको गोद में लेना, उनपर सफेद छत्र धारण करना और चमर ढोलना आदि सभी कार्य स्वयं अपने हाथसे करते हुए इन्द्र लोग भगवान्के अलौकिक ऐश्वर्यको प्रकट कर रहे थे ||६०|| उस समय भगवान्, सौधर्म इन्द्रकी गोद में बैठे हुए थे, ऐशान इन्द्र सफेद छत्र लगाकर उनकी सेवा कर रहा था और सनत्कुमार तथा माहेन्द्र स्वर्गके इन्द्र उनकी दोनों ओर क्षीरसागरकी लहरोंके समान सफेद चमर ढोल रहे थे ।।६१-६२।। उस समयकी विभूति देखकर कितने ही अन्य मिध्यादृष्टि देव इन्द्रको प्रमाण मानकर समीचीन जैनमार्गमें श्रद्धा करने लगे थे ||६३ || मेरु पर्वत पर्यन्त नील मणियोंसे बनायी हुई सीढ़ियाँ ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानो आकाश ही भक्तिसे सोढ़ीरूप पर्यायको प्राप्त हुआ हो || ६४ || क्रम-क्रमसे वे इन्द्र ज्योतिष-पटलको उल्लंघन कर ऊपरकी ओर जाने लगे। उस समय वे नीचे ताराओंसहित आकाशको ऐसा मानते थे मानो कुमुदिनियोंसहित सरोवर ही हो ॥ ६५ ॥ तत्पश्चात् वे इन्द्र निन्यानबे हजार योजन ऊँचे उस सुमेरु पर्वत पर जा पहुँचे ||६६| जिसके मस्तकपर स्थित चूलिका मुकुटके समान सुशोभित होती है और
१. प्राप्ती । २. ब्रुवन्ति स्म । ३. क्षीराम्बिवीचिसदृशैः । ४. तत्कालभवाम् । ५. संपदम् । ६. देवाः । ७. इन्द्रेविश्वासं गताः । ८. परिणमनम् । ९. संजाततारकाम् । १०. कुमुदानि प्रचुराणि यस्यां सन्तीति कुमुद्वती । ११. मुकुट - १० अ० ० १२. चूलिकायाम् । १३. मृजु - प०, अ०, स० म०, रु० ।
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