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द्वादशं पर्व
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द्वीपं नन्दीश्वरं देवा मन्दरागं च सेवितुम् । सुदन्तीन्द्रः समं यान्ति सुन्दरीभिः समुत्सुकाः ॥२३१॥
[ बिन्दुमान् ] लस बिन्दुभिराभान्ति मुखैरमरवारणाः । घटावटनया व्योम्नि विचरन्तस्त्रिधा स्रुतः ॥ २३२ ॥
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[ बिन्दुच्युतकम् ] मकरन्दारुणं तोयं धन्ते तत्पुरखातिका । साम्बुजं क्वचिदुद्विम्युजलं ['चलन् ] मकरदारुणम् ॥२३३॥ [ बिन्दुच्युतकमेव ]
श्लोक भी निरौष्ट्य है ।। २३० ॥ हे सुन्दर दाँतोंवाली देवि, देखो, ये देव इन्द्रोंके साथ अपनीअपनी स्त्रियोंको साथ लिये हुए बड़े उत्सुक होकर नन्दीश्वर द्वीप और पर्वतपर क्रीड़ा करने के लिए जा रहे हैं । [ यह श्लोक बिन्दुमान हैं अर्थात् 'सुदतीन्द्रः' की जगह 'सुदन्तीन्द्रैः' ऐसा दकारपर बिन्दु रखकर पाठ दिया है, इसी प्रकार 'नदीश्वरं ' के स्थानपर बिन्दु रखकर 'नन्दीश्वर' कर दिया है और 'मदरागं' की जगह बिन्दु रखकर 'मन्दरागं' कर दिया है इसलिए बिन्दुच्युत होने पर इस श्लोकका दूसरा अर्थ इस प्रकार होता है, है देवि, ये देवदन्ती अर्थात् हाथियोंके इन्द्रों (बड़े-बड़े हाथियों) पर चढ़कर अपनी-अपनी स्त्रियोंको साथ लिये हुए मदरागं सेवितुं अर्थात् क्रीड़ा करनेके लिए उत्सुक होकर द्वीप और नदीश्वरं (समुद्र) को जा रहे हैं ।] ।।२३१|| - हे माता, जिनके दो कपोल और एक सूँड़ इस प्रकार तीन स्थानोंसे मद झर रहा है तथा जो मेघोंकी घटा समान आकाशमें इधर-उधर विचर रहे हैं ऐसे ये देवोंके हाथी जिनपर अनेक बिन्दु शोभायमान हो रहे हैं ऐसे अपने मुखोंसे बड़े ही सुशोभित हो रहे हैं । [ यह बिन्दुच्युतक श्लोक है इसमें बिन्दु शब्दका बिन्दु हटा देने और घटा शब्दपर रख देनेसे दूसरा अर्थ हो जाता है, चित्रालंकार में श और स में कोई अन्तर नहीं माना जाता, इसलिए दूसरे अर्थ में 'त्रिधा स्रुताः' की जगह 'त्रिधा श्रुतांः' पाठ समझा जायेगा। दूसरा अर्थ इस प्रकार है कि 'हे देवि ! दो, अनेक तथा बारह इस तरह तीन भेदरूप श्रुतज्ञानके धारण करनेवाले तथा घण्टानाद करते हुए आकाश में विचरनेवाले ये श्रेष्ठदेव, ज्ञानको धारण करनेवाले अपने सुशोभित मुखसे बड़े ही शोभायमान हो रहे हैं । ] || २३२|| हे देवि, देवोंके नगरकी परिखा ऐसा जल धारण कर रही है जो कहीं तो लाल कमलोंकी परागसे लाल हो रहा है, कहीं कमलोंसे सहित है, कहीं उड़ती हुई जलकी छोटी-छोटी बूँदोंसे शोभायमान है और कहीं जलमें विद्यमान रहनेवाले मगरमच्छ आदि जलजन्तुओंसे भयंकर है । [ इस श्लोकमें जलके वाचक 'तोय' और 'जल' दो शब्द हैं इन दोनोंमें एक व्यर्थ अवश्य है इसलिए जल शब्द के बिन्दुको हटाकर 'जलमकरदारुणं' ऐसा पद बना लेते हैं जिसका अर्थ होता है जलमें विद्यमान मगरमच्छों से भयंकर । इस प्रकार यह भी बिन्दुच्युतक श्लोक है । परन्तु 'अलंकारचिन्तामणि' में इस श्लोकको इस प्रकार पढ़ा है 'मकरन्दारुणं तोयं धत्ते तत्पुरखातिका । साम्बुजं कचिदुदु बिन्दु चलन्मकरदारुणम् ।' और इसे 'बिन्दुमान् बिन्दुच्युतक'का उदाहरण दिया है जो कि इस प्रकार घटित होता है - श्लोकके प्रारम्भमें ‘मकरदारुणं' पाठ था वहाँ बिन्दु देकर 'मकरन्दारुणं' ऐसा पाठ कर दिया और अन्त में 'चलन्मकरन्दारुणं' ऐसा पाठ था वहाँ बिन्दुको च्युत कर चलन्मकरदारुणं ( चलते हुए मगर
१. सुदति भो कान्ते । सुदन्तीन्द्रैरिति सबिन्दुकं पाठ्यम् । २. उच्चारणकाले बिन्दु संयोज्य अभिप्रायकथने त्यजेत् । उच्चारणकाले विद्यमानबिन्दुत्वात् बिन्दुमानित्युक्तम् । ३. पद्मकैः । 'पद्मकं बिन्दुजालकम्' इत्यभिधानात् । ४. घटानां समूहानां घटना तथा । पक्षे घण्टासंघटनया । ५. त्रिमदलाविणः । ६. चलन्मकर६०, ८० । चलम्मकरन्दारुणमित्यत्र बिन्दुलोपः ।
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