________________
द्वादशं पर्व
वसुधारानिभैनात् स्वर्गश्रीस्वामुपासिनुम् । सेयमायाति पश्यैनां नानारत्नांशुचित्रिताम् ॥ २५३ ॥ मुदेऽस्तु वसुधारा ते देवताशीस्तताम्बरा । स्तुतादेशे नमाताधा' वशीशे "स्वस्वनस्तसु ॥२५४॥ इति ताभि: प्रयुक्तानि दुष्कर। णि विशेषतः । जानाना सुचिरं भेजे सान्तर्वली 'सुखासिकाम् ॥२५५॥ निसर्गाच्च धृतिस्तस्याः परिज्ञानेऽभवत् परा । प्रज्ञामयं परं ज्योतिरुद्वहन्त्या निजोदरे ॥ २५६ ॥ सा तदात्मीयगर्भान्तर्गतं " तेजोऽतिभासुरम् । दधानाकांशुगर्भेव प्राची" प्राप परां रुचिम् ॥ २५७ ॥ सूचिता वसुधारोरुदीपेनाधः कृतार्चिषा । निधिगर्भस्थलीवासी रेजे राजीवलोचना ॥२५८॥
ओरकी भूमि ऐसी शोभायमान हो रही है मानो किसी बड़े खजानेको ही धारण कर रही हो || २५२ || हे देवि ! इधर अनेक प्रकारके रत्नोंकी किरणोंसे चित्र-विचित्र पड़ती हुई यह रत्नधारा देखिए । इसे देखकर मुझे तो ऐसा जान पड़ता है मानो रत्नधाराके छलसे यह स्वर्गकी लक्ष्मी ही आपकी उपासना करनेके लिए आपके समीप आ रही है || २५३ ॥ जिसकी आज्ञा अत्यन्त प्रशंसनीय है और जो जितेन्द्रिय पुरुषोंमें अतिशय श्रेष्ठ है ऐसी हे माता ! देवताओंके आशीर्वादसे आकाशको व्याप्त करनेवाली अत्यन्त सुशोभित, जीवोंकी दरिद्रताको नष्ट करनेवाली और नम्र होकर आकाशसे पड़ती हुई यह रत्नोंकी वर्षा तुम्हारे आनन्द के लिए हो [ यह अर्धभ्रम श्लोक है - इस श्लोक के तृतीय और चतुर्थ चरणके अक्षर प्रथम तथा द्वितीय चरणमें ही आ गये हैं। ] || २५४ || इस प्रकार उन देवियोंके द्वारा पूछे हुए कठिन कठिन प्रश्नोंको विशेष रूपसे जानती हुई वह गर्भवती मरुदेवी चिरकाल तक सुखपूर्वक निवास करती रही || २५५|| वह मरुदेवी स्वभावसे ही सन्तुष्ट रहती थी और जब उसे इस बातका परिज्ञान हो गया कि मैं अपने उदर में ज्ञानमय तथा उत्कृष्ट ज्योतिस्वरूप तीर्थकर पुत्रको धारण कर रही हूँ तब उसे और भी अधिक सन्तोष हुआ था || २५६ || वह मरुदेवी उस समय अपने गर्भके अन्तर्गत अतिशय देदीप्यमान तेजको धारण कर रही थी इसलिए सूर्यको किरणोंको धारण करनेवाली पूर्व दिशाके समान अतिशय शोभाको प्राप्त हुई थी || २५७|| अन्य सब कान्तियोंको तिरस्कृत करनेवाली रत्नोंको धारारूपी विशाल दीपकसे जिसका पूर्ण प्रभाव जान लिया गया है ऐसी वह कमलनयनी मरुदेवी किसी
१. व्याजेन । २. 'आराद्दूरसमीपयोः' । ३. नताताषा द० । नखाताषा ब० । नभातादा ८० । भायाः भावः भाता तां दधातीति भाताषा । भावं दोप्तिः ताम् आदघातीति वा । ४. बशिनां मुनीनाम् ईश: वशीशः सर्वज्ञः सः अस्यास्तीति वशीशा मरुदेवी तस्याः सम्बोधनम् वशीशे, वशिनो जिनस्य ईशा स्वामिनी तस्याः सम्बोधनं वशीशे । ५. सुष्ठु असुभिः प्राणै: अनस्तं सूते या सा स्वस्वनस्तसूः तस्याः सम्बोधनं स्वस्वनस्तसु । ६. देवीभि: । ७. दुष्करसंज्ञानि । ८. सुखास्थिताम् । ९. संतोषः । १०. तेजः पिण्डरूपार्थकम् । ११. पूर्वदिक १२. शोभाम् । १३. अधःकृत अधोमुख
*
मु
tp
स्तु
व
८
स्तु व
शी
शे
स्व
व
ता
ता
दे
शी | शे
सु
स्त
न
स्व
धा
ता
भा
न
रा
म्ब
ता
स्त
ते
रा
धा
सु