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त्रयोदशं पर्व नमोऽम्भौ सुराधीशपृतनाचलवीचिके । मकरा इव संरेजुरूकराः सुरवारणाः ॥२४॥ क्रमादय सुरानोकान्यम्बरादचिराद् भुवम् । अवतीर्य पुरी प्रापुरयोज्यां परमर्दिकाम् ॥२५॥ तत्पुरं विष्वगावेष्ट्य तदास्थुः सुरसैनिकाः । राजागणं च संल्बमभूदिन्नमहोत्सवैः ॥२६॥ प्रसवागारमिन्द्राणी ततः प्राविशदुस्सवात् । तत्रापश्यत् कुमारेण साई तां जिनमातरम् ॥२७॥ जिनमाता तदा शच्या दृष्टा सा सानुरागया। संध्ययेव हरिप्राची संगता बालमानुना ॥२८॥ मुहुः प्रदक्षिणीकृत्य प्रणम्य च जगद्गुरुम् । जिनमानुः पुरः स्थित्वा इलायत स्मेति तां शची ॥२९॥ स्वमम्ब भुवनाम्बासि कल्याणी त्वं सुमङ्गला । महादेवी वर्मवाच स्वं सपुण्या यशस्विनी ॥३०॥ इस्यमिष्टुत्य गूढाणी तां मायानिद्रयायुजत् । पुरो निधाय सा तस्या मायाशिशुमथापरम् ॥३१॥ जगद्गुरुं समादाय कराभ्यां सागमन्मुदम् । घूमणिमिवोत्सर्पत्तेजसा म्यातविष्टपम् ॥३२॥ तद्गात्रस्पर्शमासाथ सुदुर्लभमसौ तदा । मेन त्रिभुवनैश्वर्य स्वसास्कृतमिवाखिलम् ॥३३॥ मुहुस्तन्मुखमालोक्य स्पृष्ट्वानाय च तद्वपुः । परां प्रीतिमसो भेजे हर्षविस्फारितेक्षणा ॥३४॥ ततः कुमारमादाय ब्रजन्ती सा वमौ भृशम् । चौरिवार्कमभिम्याप्सनमसं भासुरांशुमिः ॥३५॥
शोभा विस्तृत कर रहे थे ॥२३॥ अथवा इन्द्रकी सेनारूपी चञ्चल लहरोंसे भरे हुए आकाशरूपी समुद्र में ऊपरको सूड किये हुए देवोंके हाथी मगरमच्छोंके समान सुशोभित हो रहे थे।२४|| अनन्तर वे देवोंकी सेनाएँ क्रम-क्रमसे बहुत ही शीघ्र आकाशसे जमीनपर उतरकर उत्कृष्ट विभूतियोंसे शोभायमान अयोध्यापुरीमें जा पहुँची ॥२५॥ देवोंके सैनिक चारों ओरसे अयोध्यापुरीको घेरकर स्थित हो गये और बड़े उत्सवके साथ आये हुए इन्द्रोंसे राजा नाभिराजका आँगन भर गया ।।२६।। तत्पश्चात् इन्द्राणीने बड़े ही उत्सवसे प्रसूतिगृहमें प्रवेश किया और वहाँ कुमारके साथ-साथ जिनमाता मरुदेवोके दर्शन किये ।।२७। जिस प्रकार अनुराग (लाली) सहित सन्ध्या बालसर्यसे यक्त पूर्व दिशाको बड़े ही हर्षसे देखती है उसी प्रकार अनुराग (प्रेम) सहित इन्द्राणीने जिनबालकसे युक्त जिनमाताको बड़े ही प्रेमसे देखा ॥२८॥ इन्द्राणीने वहाँ जाकर पहले कई बार प्रदक्षिणा दी फिर जगत्के गुरु जिनेन्द्रदेवको नमस्कार किया और फिर जिनमाताके सामने खड़े होकर इस प्रकार स्तुति की ॥२९॥ कि हे माता, तू तीनों लोकोंकी कल्याणकारिणो माता है, तू ही मंगल करनेवाली है, तू ही महादेवी है, तू ही पुण्यवती है अ
है और तू ही यशस्विनी है।॥३०॥ जिसने अपने शरीरको गुप्त कर रखा है ऐसी इन्द्राणीने ऊपर लिखे अनुसार जिनमाताकी स्तुति कर उसे मायामयी नींदसे युक्त कर दिया। तदनन्तर उसके आगे मायामयो दूसरा बालक रखकर शरीरसे निकलते हुए तेजके द्वारा लोकको व्याप्त करनेवाले चूडामणि रत्नके समान जगद्गुरु जिनबालकको दोनों हाथोंसे उठाकर वह परम आनन्दको प्राप्त हुई ॥३१-३२।। उस समय अत्यन्त दुर्लभ भगवानके शरीरका स्पर्श पाकर इन्द्राणीने ऐसा माना था मानो मैंने तीनों लोकोंका समस्त ऐश्वर्य ही अपने अधीन कर लिया हो ॥३३।। वह इन्द्राणी बार-बार उनका मुख देखती थी, बार-बार उनके शरीरका स्पर्श करती थी और बार-बार उनके शरीरको सूंघती थी जिससे उसके नेत्र हर्षसे प्रफुल्लित होगये थे और वह उत्कृष्ट प्रीतिको प्राप्त हुई थी ॥३४॥ तदनन्तर जिनबालकको लेकर जाती हुई वह इन्द्राणी ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो अपनी देदीप्यमान किरणोंसे आकाशको व्याप्त करनेवाले सूर्यको
१. परमदिनीम् । २. दिक् । ३. स्तोति स्म । ४. भुवनम् । ५. प्राप्य । ६. स्वाधीनम् ।