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आदिपुराणम् शिरांसि प्रचलन्मौलिमीनि प्रणतिं दधुः। सुरासुरगुरोजन्म भावयन्तीव विस्मयात् ॥१२॥ घण्टाकण्ठीरवध्वानभरीशङ्काः प्रदध्वनुः । कल्पेशज्योतिषां वन्यभावनानां च वेश्मसु ॥१३॥ तेषामुनिमवेलानामन्धोनामिव निःस्वनम् । श्रुत्वा बुबुधिरे जन्म विबुधा भुवनेशिनः ॥१४॥ ततः शक्राज्ञया देव पृतना निर्ययुर्दिवः । तारतम्येन सावाना महाब्धेरिव वीचयः ॥१५॥ इस्त्यश्वरपगन्धर्वनतंकीपसयो वृषाः । इत्यमूनि सुरेन्द्राणां महानीकानि निर्ययुः ॥१६॥ अथ सौधर्मकल्पेशो महरावतदन्तिनम् । समाख्य समं शच्या प्रतस्थे विबुधैर्वृतः ॥१७॥ ततः सामानिकासायविंशाः पारिषदामराः । प्रारमरौः समं लोकपालास्तं परिवजिरे ॥१८॥ दुन्दुमीनां महाध्वानः सुराणां जयघोषणः । महानभूतदा ध्यानः सुरानीकेषु विस्फुरन् ॥१९॥ हसन्ति कंचिन्नुस्यन्ति बहास्यास्फोटयन्स्यपि । पुरोधावन्ति गायन्ति सुरास्तत्र प्रमोदिनः ॥२०॥ नमोऽङ्गणं तदा कृत्स्नमार त्रिदशाधिपाः । स्वैः स्वैर्विमानैराजग्मुवाहनैश्च पृथग्विधैः ॥२॥ तेषामापततां यानविमानैराततं नमः । त्रिषष्टिपटलेभ्योऽन्यत् स्वर्गान्तरमिवासृजत् ॥२२।। नमः परसि नाकीन्द्रदेहोयोताच्छयारिणि । स्मेराण्यप्सरसां वक्त्राण्यातेनुः परजश्रियम् ॥२३॥
बड़े संभ्रमके साथ ऊँचे सिंहासनोंसे नीचे ही उतर रहे हों ॥११॥ जिनके मुकुटोंमें लगे हुए मणि कुछ-कुछ हिल रहे हैं ऐसे देवोंके मस्तक स्वयमेव नम्रीभूत हो गये थे और ऐसे मालूम होते थे मानो बड़े आश्चर्यसे सुर, असुर आदि सबके गुरु भगवान् जिनेन्द्रदेवके जन्मकी भावना ही कर रहे हों ।।१२।। उस समय कल्पवासी, ज्योतिषी, व्यन्तर और भवनवासी देवोंके घरोंमें क्रमसे अपने-आप ही घण्टा, सिंहनाद, भेरी और शंखोंके शब्द होने लगे थे ॥१३॥ उठी हुई लहरोंसे शोभायमान समुद्र के समान उन बाजोंका गम्भीर शब्द सुनकर देवोंने जान लिया कि तीन लोकके स्वामी तीर्थकर भगवानका जन्म हुआ है ॥१४॥ तदनन्तर महासागरकी लहरोंके समान शब्द करती हुई देवोंकी सेनाएँ इन्द्रकी आज्ञा पाकर अनुक्रमसे स्वर्गसे निकलीं ॥१॥ हाथी, घोड़े, रथ, गन्धर्व, नृत्य करनेवाली, पियादे और बैल इस प्रकार इन्द्रकी ये सात बड़ीबड़ी सेनाएँ निकलीं ॥१६॥
तदनन्तर सौधर्म स्वर्गके इन्द्रने इन्द्राणीसहित बड़े भारी ( एक लाख योजन विस्तृत) ऐरावत हाथीपर चढ़कर अनेक देवोंसे परिवृत हो प्रस्थान किया ॥१७॥ तत्पश्चात् सामानिक, बायस्त्रिंश, पारिषद, अमिरक्ष और लोकपाल जातिके देवोंने उस सौधर्म इन्द्रको चारों ओरसे घेर लिया अर्थात् उसके चारों ओर चलने लगे।।१८।। उस समय दुन्दुभि बाजोंके गम्भीर शब्दोंसे तथा देवोंके जय-जय शन्दके उच्चारणसे उस देवसेनामें बड़ा भारी कोलाहल हो रहा था ॥१९॥ उस सेनामें आनन्दित हुए कितने ही देव हँस रहे थे, कितने ही नृत्य कर रहे थे, कितने ही उछल रहे थे, कितने ही विशाल शब्द कर रहे थे, कितने ही आगे दौड़ते थे, और कितने ही गाते थे ॥२०॥ वे सब देव-देवेन्द्र अपने-अपने विमानों और पृथक्-पृथक वाहनोंपर चढ़कर समस्त आकाशरूपी आँगनको व्याप्त कर आ रहे थे।।२१।। उन आते हुए देवों के विमान
और वाहनोंसे व्याप्त हुआ आकाश ऐसा मालूम होता था मानो तिरसठ पटलवाले स्वर्गसे भिन्न किसी दसरे स्वर्गकी ही सृष्टि कर रहा हो।।२२।। उस समय इन्द्रके शरीरकी कान्तिापी स्वच्छ जलसे भरे हुए आकाशरूपी सरोवरमें अप्सराओंके मन्द-मन्द हँसते हुए मुख, कमलोंकी
१. अनीकिनी । २. -निकामस्त्रिशत्पारि-स०, म०, ल.। सामानिकास्त्रायस्त्रिशत्पारि -द०,५० अ० । सामानिकत्रायस्त्रिशारि-ब. ३. जयघोपकः म० ल०। ४. गर्जन्ति । ५. नानाप्रकारः। ६. आगच्छताम् । ७. व्याप्तम् ।