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द्वादशं पर्व
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सा'विबभावमिरामतराङ्गी श्री मिरुपासितमूत्तिरमूमिः ।
श्रीभवने भुवनैकललाग्नि श्रीभृति भूभृति तम्बति सेवाम् || २६९ ॥
मालिनी
अतिरुचिरतराङ्गी कल्पवस्लीव साभूत्
स्मितकुसुममनूनं दर्शयन्ती फलाम ।
नृपतिरपि तदास्याः पार्श्ववर्ती रराजे
सुरतरुरिव तुङ्गो मङ्गकश्रीविभूषः ॥२७०॥
ललिततरमथास्या वक्त्रपद्मं सुगन्धि
"वचनमधुरसाशासंसजद्राजहंसं
मुहुरम्टतमिवास्या वक्त्रपूर्ण न्दुरुयद्
स्फुरितदशन रोश्चिर्म अरीकेसराज्यम् ।
भृशमनयत बोधं बालमानुस्समुद्यन् ॥ २७१ ॥
वचनमसृजदुच्चैर्लोक चेतोऽभिनन्दी |
नृपतिरपि सतृष्णस्त पिपासन् स रेमे
स्वजनकुमुदचण्डैः स्वं विभक्तं यथास्वम् ॥१७२॥
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जननी थी इसलिए कहना चाहिए कि वह समस्त लोकको जननी थी ।। २६८ ।। इस प्रकार जो स्वभावसे ही मनोहर अंगोंको धारण करनेवाली है, श्री, ही आदि देवियाँ जिसकी उपासना करती हैं तथा अनेक प्रकारकी शोभा व लक्ष्मीको धारण करनेवाले महाराज भी स्वयं जिसकी सेवा करते हैं ऐसी वह मरुदेवी, तीनों लोकोंमें अत्यन्त सुन्दर श्रीभवनमें रहती हुई बहुत ही सुशोभित हो रही थी ।। २६९ ।। अत्यन्त सुन्दर अंगोंको धारण करनेवाली वह मरुदेवी मानो एक कल्पलता ही थी और मन्द हास्यरूपी पुष्पोंसे मानो लोगोंको दिखला रही थी कि अब शीघ्र ही फल लगनेवाला है। तथा इसके समीप ही बैठे हुए मङ्गलमय शोभा धारण करनेवाले महाराज नाभिराज भी एक ऊँचे कल्पवृक्षके समान शोभायमान होते थे ।। २७० ।। उस समय मरुदेवीका मुख एक कमलके समान जान पड़ता था क्योंकि वह कमलके समान ही अत्यन्त सुन्दर था, 'सुगन्धित था और प्रकाशमान दाँतोंकी किरणमंजरीरूप केशरसे सहित था तथा वचनरूपी परागके रसको आशासे उसमें अत्यन्त आसक्त हुए महाराज नाभिराज ही पास बैठे हुए राजहंस पक्षी थे । इस प्रकार उसके मुखरूपी कमलको उदित (उत्पन्न) होते हुए बालकरूपी सूर्यने अत्यन्त हर्षको प्राप्त कराया था ।। २७१ ।। अथवा उस मरुदेवीका मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान था क्योंकि वह भी पूर्ण चन्द्रमाके समान सब लोगोंके मनको उत्कृष्ट आनन्द देनेवाला - था और चन्द्रमा जिस प्रकार अमृतकी सृष्टि करता है उसी प्रकार उसका मुख भी बार-बार उत्कृष्ट वचनरूपी अमृतकी सृष्टि करता था। महाराज नाभिराज उसके वचनरूपी अमृतको पीने में बड़े सतृष्ण थे इसलिए वे अपने परिवाररूपी कुमुद्र-समूहके द्वारा विभक्त कर दिये हुए अपने भागका इच्छानुसार पान करते हुए रमण करते थे । भावार्थ - मरुदेवीकी आशा पालन
१. सामिबभा - म० । सातिबभा-ल० । २. श्रोह्रोधृत्यादिदेवीभि: । ३. तिलके । ४. मङ्गलार्थ - । ५. मकरन्दरसवाच्छा । ६. तद्वचनामृतम् । ७ पातुमिच्छन् । ८. -खण्ड अ०, स० म०, ६०, ल० । ९. संविभक्तं स० ।
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