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द्वादशं पर्व
२६५ श्रीतिश्व कीर्ति बुद्धिलक्ष्म्यौ च देवताः । श्रियं लजां च धेयं च स्तुतिबोधं च बैभवम् ॥ १६४ ॥ तस्यामादधुरभ्यर्णवर्त्तिन्यः स्वानिमान् गुणान् । तत्संस्काराच्च सा रंजे संस्कृतेवाग्निना मणिः ॥ १६५ ॥ तास्तस्याः परिचर्यायां गर्भशोधनमादितः । प्रचक्रुः शुचिभिर्द्रव्यैः स्वर्गलोकादुपाहृतैः ॥१६६॥ स्वभाव निर्मला चार्वी भूयस्ताभिर्विशोधिता । मा शुचिस्फटिकेनेव घटिताङ्गी तदा बभौ ॥ १६७॥ काश्विन्मङ्गलधारिण्यः काश्चित्ताम्बूलदायिकाः । काश्विन्मजनपालिन्यः काश्चिच्चासन् प्रसाधिकाः ॥ १६८ ॥ काश्विन्महानसे युक्ताः शय्याविरचने पराः । पादसंवाहने काश्चित् काश्चिन्माल्यैरुपाचरन् ॥ १६९ ॥ "प्रसाधनविधौ काचित् स्पृशन्ती तन्मुखाम्बुजम् । सानुरागं व्यधात् सौरी प्रभेवाब्जं सरोरुहः ॥ १७० ॥ ताम्बूलदायिक काचिद् बभौ पत्रैः करस्थितैः । शुकाध्यासितशाखाग्रा लतेवामरकामिनी ॥१७॥ काचिदाभरणान्यस्यै ददती मृदुपाणिना । विबभौ कल्पवल्लीव शाखाप्रोमिन्न भूषणाः ॥ १७२ ॥ वासः क्षौमं " त्रजो दिव्याः सुमनोमअरोरपि । तस्यै समर्पयामासुः काश्चित् कल्पलता इव ॥ १७३॥ काचित् "सौगन्धिकाहृतद्विरेफैरनुलेपनैः । स्वकरस्यैः कृता मोदाद् "गन्धेर्युक्तिरिवारुचत् ॥१७४॥
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श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी इन षट्कुमारी देवियोंने मरुदेवीके समीप रहकर उसमें क्रमसे अपने-अपने शोभा, लज्जा, धैर्य, स्तुति, बोध और विभूति नामक गुणोंका संचार किया था । अर्थात् श्री देवीने मरुदेवीकी शोभा बढ़ा दी, ही देवीने लज्जा बढ़ा दी, धृति देवीने धैर्य बढ़ाया, कीर्ति देवीने स्तुति की, बुद्धि देवीने बोध (ज्ञान) को निर्मल कर दिया और लक्ष्मी देवीने विभूति बढ़ा दी। इस प्रकार उन देवियोंके सेवा संस्कारसे वह मरुदेवी ऐसी • सुशोभित होने लगी थी जैसे कि अग्निके संस्कारसे मणि सुशोभित होने लगता है ।। १६४-१६५।। परिचर्या करते समय देत्रियोंने सबसे पहले स्वर्गसे लाये हुए पवित्र पदार्थोंके द्वारा माताका गर्भ शोधन किया था ।। १६६ ।। वह माता प्रथम तो स्वभावसे ही निर्मल और सुन्दर थी इतनेपर देवियोंने उसे विशुद्ध किया था । इन सब कारणोंसे वह उस समय ऐसी शोभायमान होने लगी थी मानो उसका शरीर स्फटिक मणिसे ही बनाया गया हो ॥१६७॥ उन देवियोंमें कोई तो माता आगे अष्ट मंगलद्रव्य धारण करती थीं, कोई उसे ताम्बूल देती थीं, कोई स्नान कराती थीं और कोई वस्त्राभूषण आदि पहनाती थीं || १६८ || कोई भोजनशालाके काममें नियुक्त हुईं, कोई शय्या बिछाने के काममें नियुक्त हुईं, कोई पैर दाबनेके काम में नियुक्त हुई और कोई तरह- तरहको सुगन्धित पुष्पमालाएँ पहनाकर माताकी सेवा करनेमें नियुक्त हुईं || १६९ || जिस प्रकार सूर्यकी प्रभा कमलिनीके कमलका स्पर्श कर उसे अनुरागसहित ( लालीसहित ) कर देती है उसी प्रकार शृङ्गारित करते समय कोई देवी मरुदेवीके मुम्बका स्पर्श कर उसे अनुरागसहित ( प्रेमसहित ) कर रही थी ||१७०॥ ताम्बूल देनेवाली देवी हाथ में पान लिये हुए ऐसी सुशोभित होती थी मानो जिसकी शाखाके अग्रभागपर तोता बैठा हो ऐसी कोई लता ही हो || १७१ || कोई देवी अपने कोमल हाथ से माता के लिए आभूषण दे रही थी जिससे वह ऐसी शोभायमान हो रही थी मानो जिसकी शाखाके अग्रभागपर आभूषण प्रकट हुए हों ऐसी कल्पलता ही हो ।। १७२ ।। मरुदेवीके लिए कोई देवियाँ कल्पलताके समान रेशमी व दे रही थीं, कोई दिव्य मालाएँ दे रही थीं || १७३ || कोई देवी अपने हाथपर रखे हुए सुगन्धित द्रव्योंके विलेपनसे मरुदेवीके शरीरको सुवासित कर रही थी । विलेपनकी सुगन्धिके
१. आनीतैः । २. अलङ्कारे नियुक्ताः । ३. पादमर्दने । ४. उपचारमकुर्वन् । ५. अलंकारविधाने । ६. सूर्यस्येयं सौरी । ७. सरोजिन्याः । सरोवरे प० । - वाब्जं सरोरुहम् म० । - वाब्जसरोरुहम् अ० । ८. ताम्बूलदायिनी द०, स० म०, ल० । ९. उद्भिन्न उद्भूत । १०. दुकूलम् । ११. सौगन्धिकाः सौगन्ध्याः । काहून सुगन्धसमूहाहूत । 'कवचिहत्यचित्ताच्च ठणीति ठणि' अथवा ' सुगन्धाहूतविनयादिभ्यः' इति स्वार्थे ठण् । १२. गन्धसमष्टिः । गन्धद्रव्यकरणप्रतिपादकशास्त्र विशेषः ।
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