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द्वादशं पर्व
२६३ ततस्तदर्शनानन्दं वोढुं स्वाङ्गेष्विवाक्षी । कृतमालनेपथ्या सा भेजे पत्युरन्तिकम् ॥१४५॥ उचितेन नियोगेन दृष्ट्वा सा नामिभूभुजम् । तस्मै नृपासनस्थाय सुखासीना न्यजिज्ञपत् ॥१४६॥ देवाच यामिनीमागे पश्चिमे सुखनिद्रिता । भद्राक्षं षोडश स्वप्नानिमानत्यङ्गतोदयान् ॥१४७॥ गजेन्द्रमवदाताङ्गं वृषमं 'दुन्दुमिस्वनम् । सिंहमुललिताद्यग्रं लक्ष्मी स्नाप्यां सुरद्विपैः ॥१४॥ दामिनी लम्बमाने खे शीतांशु घोतिताम्बरम् । प्रोयन्तमब्जिनीबन्धु बन्धुरं झषयुग्मकम् ॥१४॥ कलसावमृतापूर्णी सरः स्वच्छाम्बु साम्बुजम् । वाराशिं क्षुमितावर्त सैंह भासुरमासनम् ॥१५॥ विमानमापतत् स्वर्गाद् भुवो #वनमुद्भवत् । रबराशिं स्फुरदर्शिम ज्वलनं प्रज्वलद्युतिम् ॥३५१।। दृष्ट्रतान् षोडशस्वप्नानथादर्श महीपते । वदनं मे विशन्त तं गवेन्द्र कनकच्छविम् ॥१५२॥ वदेतेषां फलं देव शुश्रूषा मे विवर्दते । अपूर्वदर्शनात् कस्य न स्यात् कौतुकवन्मनः ॥१५३॥ अथासाववधिज्ञानविबुद्धस्वप्नसत्फलः । प्रोवाच तत्फलं देव्यै लसद्दशनदीधितिः ॥१५४॥ शृणु देवि महान् पुत्रो भविता ते गजेक्षणात् । समस्तभुवनज्येष्ठो महावृषमदर्शनात् ॥१५५॥ सिंहेनानन्नवीयर्योऽसौ दाम्ना सद्धर्मतीर्थकृत् । लक्ष्याभिषेकमातासौ मेरोमूनि सुरोत्तमैः ॥१५६॥ पूर्णेन्दुना जनाहादी मास्वता मास्वरयुतिः । कुम्माभ्यां निधिमागी स्यात् सुखी मत्स्ययुगेक्षणात्।।१५७॥ सरसा लक्षणोद्भासी सोऽब्धिना केवली भवेत् । सिंहासनेन साम्राज्यमवाप्स्यति जगद्गुरुः ॥१५॥
तदनन्तर वह मरुदेवी स्वप्न देखनेसे उत्पन्न हुए आनन्दको मानो अपने शरीरमें धारण करनेके लिए समर्थ नहीं हुई थी इसीलिए वह मंगलमय स्नान कर और वस्त्राभूषण धारण कर अपने पतिके समीप पहुँची ।।१४।। उसने वहाँ जाकर उचित विनयसे महाराज नाभिराजके दर्शन किये और फिर सुखपूर्वक बैठकर, राज्यसिंहासनपर बैठे हुए महाराजसे इस प्रकार निवेदन किया ॥१४६।। हे देव, आज मैं सुखसे सो रही थी, सोते ही सोते मैंने रात्रिके पिछले भागमें आश्चर्यजनक फल देनेवाले ये सोलह स्वप्न देखे हैं ॥१४७॥ स्वच्छ और सफेद शरीर धारण करनेवाला ऐरावत हाथी, दुन्दुभिके समान शब्द करता हुआ बैल, पहाड़की चोटीको उल्लंघन करनेवाला सिंह, देवोंके हाथियों द्वारा नहलायी गयी लक्ष्मी, आकाशमें लटकती हुई दो मालाएँ, आकाशको प्रकाशमान करता हुआ चन्द्रमा, उदय होता हुआ सूर्य, मनोहर मछलियोंका युगल, जलसे भरे हुए दो कलश, स्वच्छ जल और कमलोंसे सहित सरोवर, क्षुभित और भँवरसे युक्त समुद्र, देदीप्यमान सिंहासन, स्वर्गसे आता हुआ विमान, पृथिवीसे प्रकट होता हुआ नागेन्द्रका भवन, प्रकाशमान किरणोंसे शोभित रत्नोंकी राशि और जलती हुई देदीप्यमान अग्नि। इन सोलह स्वप्नोंको देखनेके बाद हे राजन्, मैंने देखा है कि एक सवर्णके समान पीला बैल मेरे मुखमें प्रवेश कर रहा है। हे देव, आप इन स्वप्नोंक., फल कहिए । इनके फल सुननेकी मेरी इच्छा निरन्तर बढ़ रही है सो ठीक ही है अपूर्व वस्तुके देखनेसे किसका मन कौतुक-युक्त नहीं होता है ? ॥१४८-१५३।। तदनन्तर, अवधिज्ञानके द्वारा जिन्होंने स्वप्नोंका उत्तम फल जान लिया है और जिनकी दाँतोंकी किरणे अतिशय शोभायमान हो रही हैं ऐसे महाराज नाभिराज मरुदेवीके लिए स्वप्नोंका फल कहने लगे ॥१५४॥ हे देवि, सुन, हाथीके देखनेसे तेरे उत्तम पुत्र होगा, उत्तम बैल देखनेसे वह समस्त लोकमें ज्येष्ठ होगा ॥१५॥ सिंहके देखनेसे वह अनन्त बलसे युक्त होगा, मालाओंके देखनेसे समीचीन धर्मके तीर्थ (आम्नाय) का चलानेवाला होगा, लक्ष्मीके देखनेसे वह सुमेरु पर्वतके मस्तकपर देवोंके द्वारा अभिषेकको प्राप्त होगा ॥१५६।। पूर्ण चन्द्रमाके देखनेसे समस्त लोगोंको आनन्द देनेवाला होगा, सूर्यके देखनेसे देदीप्यमान प्रभाका धारक होगा, दो कलश देखनेसे अनेक निधियोंको प्राप्त होगा, मछलियोंका युगल देखनेसे सुखी होगा॥१५७। सरोवरके देखनेसे अनेक लक्षणोंसे शोभित होगा, समुद्रके देखनेसे केवली होगा, सिंहासनके देखनेसे जगत्का गुरु होकर साम्राज्य.
१. वृष दुन्दुभिनिःस्वनम् अ०, ५०, स०, ८०, म., ल०। २. भूभेः सकाशात् । ३. नागालयम् । ४. प्राप्स्यति । -माप्तोऽसौ अ०,५०, स०, म०, ल.।