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आदिपुराणम्
अङ्गरक्षाविधौ काचिदुरखातासिलता बभुः । सरस्य इव वित्रस्तपाठीनाः सुरयोषितः ॥ १७५ ॥ संममार्जुर्म हीं काचिदाकीयां पुष्परेणुभिः । तद्गन्धासङ्गिनो भुङ्गानाधुनानाः स्तनांशुकैः ॥ १७६ ॥ कुर्वन्ति स्मापराः सान्द्र चन्दनच्छटयोक्षिताम् । क्षितिमात्रांशुकैरन्याः निर्ममार्जुरतन्द्रिताः ॥ १७७॥ कुर्वते 'वलिविम्यासं रत्नचूर्णैः पुरोऽपराः । पुष्पैरुपहरन्स्यम्यास्ततामोदेर्चुशाखिनाम् ॥ १७८ ॥ काश्चिद्दर्शितदिव्यानुभावाः प्रच्छन्नविग्रहाः । नियोगैरुचितैरैनामनारवमुपाचरन् ॥ १७९ ॥ प्रभातरलितां काश्चिद् दधानास्तनुयष्टिकाम् । सौदामिन्य इवानिम्युरुचितं रुचितं च यत् ॥ १८० ॥ काश्रिदन्तर्हिता देव्यो देब्यै दिब्बानुभावतः । त्रजमंशुकमाहारं भूषां चास्यै समर्पयन् ॥१८॥ अन्तरिक्षस्थिताः काशिदनाकक्षितमूर्त्तयः । यत्नेन रक्ष्यतां देवीत्युच्चैगिरमुदाहरन् ॥ १८२ ॥ 'गतेष्वंशुक संधानमा 'सिवेध्यासना" इतिम् । "स्थितेषु परितः सेवां चकुरस्याः सुराङ्गनाः ॥ १८३॥ काश्चिदुच्विशिपु ज्योंति स्तरका मणिदीपिकाः । निशामुखेषु' 'हर्म्याप्राद् विधुन्वानास्तमोऽमितः ॥ १८४ ॥ काश्चिन्नीराजयामासुरुचितैवं किकर्मभिः । "न्यास्थ मन्त्राक्षरैः काश्चिदस्यै रक्षामुपाक्षिपन् ॥१८५॥
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कारण उस देवीके हाथपर अनेक भौरे आकर गुंजार करते थे जिससे वह ऐसी मालूम होती थी मानो सुगन्धित द्रव्यों की उत्पत्ति आदिका वर्णन करनेवाले गन्धशास्त्रकी युक्ति ही हो ॥१७४॥ माताकी अंग रक्षा के लिए हाथमें नंगी तलवार धारण किये हुई कितनी ही देवियाँ ऐसी शोभायमान होती थीं मानो जिनमें मछलियाँ चल रही हैं ऐसी सरसी (तलैया) ही हों || १७५|| कितनी ही देवियाँ पुष्पकी परागसे भरी हुई राजमहलकी भूमिको बुहार रही थीं और उस परागकी सुगन्धसे आकर इकट्ठे हुए भोरोंको अपने स्तन ढकनेके वस्त्रसे उड़ाती भी जाती थीं ॥ १७६ ॥ कितनी ही देवियाँ आलस्यरहित होकर पृथिवीको गीले कपड़ेसे साफ कर रही थीं और कितनी ही देवियाँ घिसे हुए गाढ़े चन्दनसे पृथिवीको सींच रही थीं ॥ १७७॥ कोई देवियाँ माताके आगे रत्नोंके चूर्णसे रंगावलीका विन्यास करती थीं- रंग-विरंगे चौक पूरती थीं, बेलबूटा खींचती थीं और कोई सुगन्धि फैलानेवाले, कल्पवृक्षोंके फूलोंसे माताकी पूजा करती थींउन्हें फूलोंका उपहार देती थीं ॥१७८॥ कितनी ही देवियाँ अपना शरीर छिपाकर दिव्य प्रभाव दिखलाती हुई योग्य सेवाओंके द्वारा निरन्तर माताकी शुश्रूषा करती थीं || १७९ || बिजलीके समान प्रभासे चमकते हुए शरीरको धारण करनेवाली कितनी हो देवियाँ माताके योग्य और अच्छे लगनेवाले पदार्थ लाकर उपस्थित करती थीं ॥१८०॥ कितनी ही देवियाँ अन्तर्हित होकर अपने दिव्य प्रभावसे माताके लिए माला, वस्त्र, आहार और आभूषण आदि देती थीं ॥। १८१ ॥ जिनका शरीर नहीं दिख रहा है ऐसी कितनी ही देवियाँ आकाशमें स्थित होकर बड़े जोरसे कहती थीं कि माता मरुदेवीकी रक्षा बड़े ही प्रयत्नसे की जाये || १८२ ।। जब माता चलती थीं तब वे देवियाँ उसके वस्त्रोंको कुछ ऊपर उठा लेती थीं, जब बैठती थीं तब आसन लाकर उपस्थित करती थीं और जब खड़ी होती थीं तब सब ओर खड़ी होकर उनकी सेवा करती थीं ॥१८३॥ कितनी ही देवियाँ रात्रिके प्रारम्भकालमें राजमहलके अग्रभागपर अतिशय चमकीले मणियोंके दीपक रखती थीं। वे दीपक सब ओरसे अन्धकारको नष्ट कर रहे थे || १८४॥ कितनी ही देवियाँ सायंकाल के समय योग्य वस्तुओंके द्वारा माताकी आरती उतारती थीं, कितनी ही देवियाँ दृष्टिदोष दूर करनेके लिए उतारना उतारती थीं और कितनी ही
१. प्रोक्षिताम्, सिक्तामित्यर्थः । २. रङ्गवलिरचनाम् । ३. कल्पवृक्षाणाम् । ४. मनुष्यदेहधारिणः । ५. अन्तर्धानं गताः । ६. वदन्ति स्म । ७. गमनेषु । ८. वस्त्रप्रसरणम् । ९. उपवेशनेषु । १०. पीठानयनम् । ११. स्थानेषु । १२. उत्रालयन्ति स्म । १३. प्रासादाग्रमारुह्य । १४. व्यसन्ति स्म । १५. निक्षिपन्ति स्मेत्यर्थः । -गुणक्षयम् ६०, स०, म०, ट० | उपक्षपं रात्रिमुखे ।