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द्वादशं पर्व मृदङ्गा न वयं सत्यं पश्यतास्मान हिरण्मयान् । इतीवारसितं चास्ते मुहुस्तस्कराहताः ॥२०॥ मुरवाः कुरवा नैते वदनीयाः कृतश्रमम् । इतीव सस्वनुमन्द्रं पणवाद्याः सुरानकाः ॥२०७॥ प्रभातमङ्गले काश्चित् शङ्खानाध्मासिषुः पृथून । स्वकरोत्पीडनं सोतुमक्षमानिव सारवान् ॥२०॥ काश्चित् प्राबोधिकैस्तूयः सममुत्तालतालकैः । जगुः कलं च मन्द्रं च मङ्गलानि सुराजन्नाः ॥२०९।। इति तत्कृतया देवी स बभौ परिचर्यया । त्रिजगच्छीरिचकध्यमु पनीता कथंचन ॥२१०॥ दिक्कुमारीमिरिस्यात्तसंभ्रमं समुपासिता। तत्प्रभावैरिवाविष्टैः सा बमार परां श्रियम् ॥२११॥
अन्तर्वनीमथाभ्यणे नवमे मासि सादरम् । विशिष्टकाव्यगोष्टीभिर्देव्यस्तामित्यरजयन् ।।२१२।। 'निगूढार्थक्रियापादैः बिन्दुमात्राक्षरच्युतैः । देग्यस्ता रअयामासुः इलोकरन्यैश्च कैश्वन ॥२१३।।
किमिन्दुरेको लोकेऽस्मिन् त्वयाम्ब मृदुरीक्षितः । आछिनरिस बलादस्य "यदशेष कलाधनम् ॥२१॥ ऊँचे स्वरसे उन बजानेवाली देवियोंके कला-कौशलको ही प्रकट कर रहे हों।।२०५।।उन देवियोंके हाथसे बार-बार ताड़ित हुए मृदंग मानो यही ध्वनि कर रहे थे कि देखो, हम लोग वास्तवमें मृदंग (मृत्+अङ्ग) अर्थात् मिट्टीके अङ्ग (मिट्टीसे बने हुए) नहीं हैं किन्तु सुवर्ण के बने हुए है। भावाथे-मृदंग शब्द रूढ़िसे ही मृदंग (वाद्यविशेष) अर्थको प्रकट करता है ।।२०६।। उस समय पणव आदि देवोंके बाजे बड़ी गम्भीर ध्वनिसे बज रहे थे मानो लोगोंसे यही कह रहे थे कि हम लोग सदा सुन्दर शब्द ही करते हैं, बुरे शब्द कभी नहीं करते और इसीलिए बड़े परिश्रमसे बजाने योग्य हैं ।।२०७॥ प्रातःकालके समय कितनी ही देवियाँ बड़े-बड़े शंख बजा रही थीं और वे ऐसे मालूम होते थे मानो उन देवियों के हाथोंसे होनेवाली पीडाको सहन करनेके लिए असमर्थ होकर ही चिल्ला रहे हों ॥२०८॥ प्रातःकालमें माताको जगानेके लिए जो ऊँची तालके साथ तरही बाजे बज रहे थे उनके साथ कितनी ही देवियाँ मनोहर और गम्भीर मंगलगान गाती थीं ॥२०९।। इस प्रकार उन देवियोंके द्वारा की हुई सेवासे मरुदेवी ऐसी शोभायमान होती थीं मानो किसी प्रकार एकरूपताको प्राप्त हुई तीनों लोकोंकी लक्ष्मी ही हो ।।२१०।। इस तरह बड़े संभ्रमके साथ दिकुमारी देवियोंके द्वारा सेवित हुई उस मरुदेवीने बड़ी ही उत्कृष्ट शोभा धारण की थी और वह ऐसी मालूम पड़ती थी मानो शरीर में प्रविष्ट हुए देवियोंके प्रभावसे ही उसने ऐसी उत्कृष्ट शोभा धारण की हो ॥२११।।
अथानन्तर, नौवाँ महीना निकट आनेपर वे देवियाँ नीचे लिखे अनुसार विशिष्ट-विशिष्ट काव्य-गोष्ठियोंके द्वारा बड़े आदरके साथ गर्भिणी मरुदेवीको प्रसन्न करने लगीं ॥२१२।। जिनमें अर्थ गूढ़ है, क्रिया गूढ़ है, पाद (श्लोकका चौथा हिस्सा) गूढ़ है अथवा जिनमें बिन्दु छूटा हुआ है, मात्रा छूटी हुई या अक्षर छूटा हुआ है ऐसे कितने ही श्लोकोंसे तथा कितने हो प्रकार के अन्य श्लोकोंसे वे देवियाँ मरदेवीको प्रसन्न करती थीं।२१३॥ वे देवियाँ कहने लगी कि हे माता, क्या तुमने इस संसारमें एक चन्द्रमाको ही कोमल (दुर्बल) देखा है जो इसके समस्त कलारूपी धनको जबरदस्ती छीन रही हो। भावार्थ--इस श्लोकमें व्याजस्तुति अलंकार है अर्थात् निन्दाके छलसे देवीकी स्तुति की गयी है । देवियोंके कहनेका अभिप्राय यह है कि आपके मुखकी कान्ति जैसे-जैसे बढ़ती जाती है वैसे-वैसे ही चन्द्रमाकी कान्ति घटती जाती है अर्थात् आपके कान्तिमान मुखके सामने चन्द्रमा कान्तिरहित मालूम होने लगा है। इससे जान पड़ता है कि आपने चन्द्रमाको दुर्बल समझकर उसके कलारूपी समस्त धनका अपहरण कर लिया
१. मृण्मयावयवाः । २. ध्वनितम् । ३. मुरजाः। सुरवाः अ०, ५०, स०, द०, ल०। ४. कुत्सितरवाः । ५. पूरयन्ति स्म । ६. तत्करोत्पीडनं म०, ल.। ७. आरवेन सहितान् । ८. एकत्वम् । ९. प्रविष्टः। १०. गभिणीम् । ११. अर्थाश्च क्रियाश्च पादाश्च अर्थक्रियापादाः निगूढा अर्थक्रियापादा येषु तैः । १२. बिन्दुच्युतकमात्राच्युतकाक्षरच्युतकः । १३. यत् कारणात् ।