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आदिपुराणम् प्रायेणास्माजनस्थानादपसृत्य गमोऽटवेः । प्रायोपगमनं तज्जनिरुतं श्रमणोत्तमैः ॥९॥ स्वपरोपकृतां देहे सोऽनिच्छंस्ता प्रतिक्रियाम् । रिपोरिव शवं त्यक्त्वा देहमास्त निराकुलः ॥९॥ स्वगस्थिभूतसर्वाङ्गो मुनिः परिकृशोदरः । सस्वमेवावलम्यास्थाद् गणरात्रानकम्पधीः ॥१९॥ क्षुधं पिपासां शीतं च तथोष्णं दंशमक्षिकम् । नाग्न्यं तथा रतिं सैणं चर्याशय्यां निषद्यकाम् ॥१०॥ आक्रोशं वधयाश च तथालाममदर्शनम् । रोगं च सतृणस्पर्श प्रज्ञाशाने मलं तथा ॥१०॥ ससस्कारपुरस्कारमसोढतान् परीषहान् । मार्गाच्यवनमाशंसुः महती निर्जरामपि ॥१०२॥ स भेजे मतिमान् शान्ति परं मार्दवमार्जवम् । शौचं च संयम सत्यं तपस्त्यामौ च निर्मदः ।।१०३॥ आकितन्यमय ब्रह्मचर्य च वदतां वरः । धर्मो "दशतयोऽयं हि गणेशाममिसम्मत:" ॥१०॥ सोऽनु दध्यावनित्यत्वं सुखायुर्बलसंपदाम् । तथाऽशरणतां मृत्युजसजन्मभये नृणाम् ॥१०५।। संसृतेर्दुःस्वभावत्वं विचित्रपरिवर्तनैः । एकस्वमात्मनो ज्ञानदर्शनात्मस्वमीयुषः ॥१०६॥ अन्यत्वमात्मनो देहधनबन्धुकलत्रतः । तथाऽशौचं शरीरस्य नवद्वारेमलनुत:" ॥१०॥
मानवं पुण्यपापारमकर्मणां सह संवरम् । निर्जरां विपुला बोधेदुर्लभत्वं भवाम्बुधौ ॥१०॥ हैं ।।१६।। उस विषयके जानकर उत्तम मुनियोंने इस संन्यासका एक नाम प्रायोपगमन भी बतलाया है और उसका अर्थ यह कहा है कि जिसमें प्रायः करके (अधिकतर) संसारी जीवोंके रहने योग्य नगर, ग्राम आदिसे हटकर किसी वनमें जाना पड़े उसे प्रायोपगमन कहते हैं ।।१७।। इस प्रकार प्रायोपगमन संन्यास धारण कर वज्रनाभि मुनिराज अपने शरीरका न तो स्वयं ही कुछ उपचार करते थे और न किसी दूसरेसे ही उपचार करानेकी चाह रखते थे। वे तो शरीरसे ममत्व छोड़कर उस प्रकार निराकुल हो गये थे जिस प्रकार कि कोई शत्रुके मृतक शरीरको छोड़कर निराकुल हो जाता है ॥९८॥ यद्यपि उस समय उनके शरीरमें चमड़ा और हड्डी ही शेष रह गयी थी एवं उनका उदर भी अत्यन्त कृश हो गया था तथापि वे अपने स्वाभाविक धैर्यका अवलम्बन कर बहुत दिन तक निश्चलचित्त होकर बैठे रहे ॥२९॥ मुनिमार्गसे च्युत न होने और कर्मोकी विशाल निर्जरा होनेकी इच्छा करते हुए वननाभि मुनिराजने क्षुधा, तृष्णा, शीत, उष्ण, दंश-मशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, शय्या, निषद्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, अदर्शन, रोग, तृणस्पर्श, प्रज्ञा, अज्ञान, मल और सत्कारपुरस्कार ये बाईस परिषह सहन किये थे ॥१००-१०२।। बुद्धिमान , मदरहित और विद्वानों में श्रेष्ठ वज्रनाभि मुनिने उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य ये दश धर्म धारण किये थे । वास्तव में ये ऊपर कहे हुए दश धर्म गणधरोंको अत्यन्त इष्ट हैं ॥१०३-१०४॥ इनके सिवाय वे प्रति समय बारह अनुप्रेक्षाओंका चिन्तवन करते रहते थे जैसे कि संसारके सुख, आयु, बल और सम्पदाएँ सभी अनित्य हैं । तथा मृत्यु, बुढ़ापा और जन्मका भय उपस्थित होनेपर मनुष्योंको कुछ भी शरण नहीं है; द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप विचित्र परिवर्तनोंके कारण यह संसार अत्यन्त दुःखरूप है । ज्ञानदर्शन स्वरूपको प्राप्त होनेवाला आत्मा सदा अकेला रहता है । शरीर, धन, भाई और स्त्री वगैरहसे यह आत्मा सदा पृथक् रहता है । इस शरीर के नव द्वारोंसे सदा मल झरता रहता है इसलिए यह अपवित्र है । इस जीवके पुण्य पापरूप कर्मोंका आस्रव होता रहता है। गुप्ति समिति आदि कारणोंसे उन कर्मोका संवर होता है। तपसे निर्जरा होती है। यह लोक चौदह राजूप्रमाण ऊँचा है । संसाररूपी समुद्रमें रत्नत्रयकी
१. निर्गत्य । २. मनोबलम् । ३. बहुनिशाः। ४. निष्कम्पबुद्धिः। ५. मशकम् । ६. नग्नत्वम् । ७. स्त्रीसम्बन्धि । ८. शयनम् । ९. इच्छन् । १०. दशप्रकारः 'प्रकारवाची तयप्' । दशतयायं द०, म०, ल०। ११. -मपि सम्मतः अ०, स०, म०, द, ल.। १२. अन्वचिन्तयत् । १३. मलस्राविणः ।