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आदिपुराणम् तस्यासीन्मरुदेवाति देवी दयाव सा शनी । रूपलावण्यकान्तिश्रीमतिद्युतिविभूतिभिः ॥१२॥ सा कलेचैन्दा कान्त्या जनतानन्ददायिनी । स्वर्गवीरूपसर्वस्वमुच्चित्येव विनिर्मिता ॥१३॥ तम्बङ्गी पक्वबिम्बोष्ठी सुभ्रश्चारुपयोधरा । मनोभुवा जगज्जेतुं सा पताकव दर्शिता ॥१४॥ तद्र पसौष्ठवं तस्या हावं भावं च विभ्रमम् । भावयित्वा कृती कोऽपि नाट्यशास्त्रं व्यधाद् ध्रुवम् ।।१५।। नूनं तस्याः कलालाप मावयन् स्वरमण्डलम् । प्रणीतगीतशास्त्रार्थो जनो जगति सम्मतः ॥१६॥ रूपसर्वस्वहरणं कृत्वान्यस्त्रीजनस्य सा। बैरूप्यं कुर्वती व्यक्त किंराज्ञां वृत्तिमन्वयात् ॥१०॥ सा दधेऽधिपदद्वन्द्वं लक्षणानि विचक्षणा । प्रणिन्युर्लक्षणं स्त्रीणां यैरुदाहरणीकृतैः ॥१८॥ मृङ्गुलिदले तस्याः "पदाजे श्रियमूहतुः" । नखदीधितिसन्तानलसकेसरशोमिनी ॥१९॥ जिस्वा रक्ताजमतस्याः क्रमौ संप्राप्तनिवृती" । नखांशुमअरीव्याजात् स्मितमातेनतुर्धवम् ॥२०॥
उन नाभिराजके मरुदेवी नामकी रानी थी जो कि अपने रूप, सौन्दर्य, कान्ति, शोभा, बुद्धि, द्यति और विभूति आदि गुणोंसे इन्द्राणी देवोके समान थी ॥१२॥ वह अपनी कान्तिसे चन्द्रमाकी कलाके समान सब लोगोंको आनन्द देनेवाली थी और ऐसी मालूम होती थी मानो स्वर्गकी स्त्रियोंके रूपका सार इकट्ठा करके ही बनायी गयी हो ॥१३॥ उसका शरीर कृश था,
ओठ पके हुए विम्बफलके समान थे, भौंहें अच्छी थीं और स्तन भी मनोहर थे। उन सबसे वह ऐसी जान पड़ती थी मानो कामदेवने जगत्को जीतनेके लिए पताका ही दिखायी हो ॥१४॥ ऐसा मालूम होता है कि किसी चतुर विद्वान्ने उसके रूपकी सुन्दरता, उसके हाव,भाव और विलासका अच्छी तरह विचार करके ही नाट्यशास्त्रकी रचना की हो। भावार्थ-नाट्यशास्त्र में जिन हाव, भाव और विलासका वर्णन किया गया है वह मानो ममदेवीकहाव, भाव और विलासको देखकर ही किया गया है ।।१५।। मालूम होता है कि संगीतशास्त्रकी रचना करनेवाले विद्वान्ने मरुदेवीकी मधुर वाणीमें ही संगीतके निषाद, ऋषभ, गान्धार आदि समस्त स्वरोंका विचार कर लिया था । इसीलिए तो वह जगत्में प्रसिद्ध हुआ है ।।१६।। उस मरुदेवीने अन्य स्त्रियोंके सौन्दर्यरूपी सर्वस्व धनका अपहरण कर उन्हें दरिद्र बना दिया था,
सलिए स्पष्ट ही मालूम होता था कि उसने किसी दुध राजाकी प्रवृत्तिका अनुसरण किया था क्योंकि दुष्ट राजा भी तो प्रजाका धन अपहरण कर उसे दरिद्र बना देता है ॥१७॥वह चतुर मरुदेवी अपने दोनों चरणों में अनेक सामुद्रिक लक्षण धारण किये हुए थी। मालूम होता है कि उन लक्षणोंको ही उदाहरण मानकर कवियोंने अन्य स्त्रियोंके लक्षणोंका निरूपण किया है।॥१८॥ उसके दोनों ही चरण कोमल अंगुलियोंरूपी दलोंसे सहित थे और नखोंकी किरणरूपी देदीप्यमान केशरसे सुशोभित थे इसलिए कमलके समान जान पड़ते थे और दोनों ही साक्षात लक्ष्मी (शोभा) को धारण कर रहे थे ।।१९।। मालूम होता है कि मरुदेवीके चरणोंने लाल कमलोंको जीत लिया इसीलिए तो वे सन्तुष्ट होकर नखोंकी किरणरूपी मंजरीके छलसे कुछकुछ हँस रहे थे ॥२०॥
१. विभूतिः अणिमादिः । २. इन्दोरियम् । ३. 'हावो मुख विकारः स्याद् भावः स्यायित्तसंभवः । विलासो नेत्रजो ज्ञेयो विभ्रमो भ्रयुगान्तयोः ॥' ४. संस्कारं कुर्वन् । ५. प्रणीतः प्रोक्तः। ६. विरूपत्वं विरुद्धं च । ७. किनपाणाम् । ८.-मन्धियात १०, म०, ल०।' पस्तके सप्तदशश्लोकानन्तरमयं श्लं समुद्धृतः-उक्तं च काव्यं [सामुद्रिके] 'भृङ्गराश [स] न वाजिकुञ्जररथश्रीवृक्षयूपेषु च [धी] मालाकुण्डल. चामराकुशयव [चामराशयवा:] शैलध्वजा तोरणाः । मत्स्यस्वस्तिकवेदिका व्यजनिका शङ्गश्च पत्राम्बुजं पादौ पाणितलेऽथवा युवतयो गच्छन्ति राज्ञः [राशी ] पदम् ॥" ९. ऊचु:। १०. पादाब्जे अ०, ५०, स., म०, द., ल०।११. बिभ्रतुः । १२. संप्राप्तसुखो।