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आदिपुराणम कृतमतिरिति धीमान् शंकरी तां जिनाज्ञा
___शमदमयमशुद्धौं भावयेदस्ततन्द्रः। सुखमतुलमीसुदुःखमारं 'जिहासु
निकटतरजिनश्रोर्वज्रनाभिर्यथायम् ॥२२१॥
इत्याचे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे भगवद्वज्रनाभिसर्वार्थसिद्धिगमनवर्णनं नाम
एकादशं पर्व ॥११॥
बहुत ही शीघ्र जिनेन्द्र लक्ष्मी (तीर्थकर पद ) प्राप्त करनेवाले इस वजनाभिने शम, दम और यम ( चारित्र ) की विशुद्धिके लिए आलस्यरहित होकर श्री जिनेन्द्रदेवकी कल्याण करनेवाली आज्ञाका चिन्तवन किया था उसी प्रकार अनुपम सुख के अभिलाषी दुःखके भारको छोड़नेकी इच्छा करनेवाले, बुद्धिमान् विद्वान् पुरुषोंको भी शम, दम, यमकी विशुद्धिके लिए आलस्य (प्रमाद) रहित होकर कल्याण करनेवाली श्री जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाका चिन्तवन करना चाहिए-दर्शन-विशुद्धि आदि सोलह भावनाओंका चिन्तवन करना चाहिए ॥ २२१ ॥
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इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध श्री भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण
महापुराणसंग्रहमें श्री भगवान् वज्रनाभिके सर्वार्थसिदिगमनका
वर्णन करनेवाला ग्यारहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥११॥
३. श्रीजिनाज्ञां म०, ल०।
४.-सिद्ध्य अ०, स० ।
१. सम्पूर्णबुद्धिः । २. विद्वान् । ५. हातुमिच्छुः ।