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द्वादश पर्व
सम्मता नाभिराजस्य पुष्पवस्यरजस्वला । वसुन्धरा तदा भेजे जिनमानुरनुक्रियाम् ॥१०॥ अथ सुप्तैकदा देवी सौधे मृदुनि तल्पक । गङ्गातरङ्गसरछायदुकूलनच्छदोज्ज्वले ॥१०॥ सापश्यत् षोडशस्वप्नानिमान् शुभफलोदयान् । निशायाः पश्चिम याम जिनजन्मानुशंसिनः ॥१०३।। गजेन्द्रमैन्द्रमामन्द्रहितं त्रिमदसुतम् । वनन्तमिव सासारं सा ददर्श शरधनम् ॥१०४॥ गवेन्द्रं दुन्दुभिस्कन्धं कुमुदापाण्डरयुतिम् । पीयूषराशिनीकाशं सापश्यन्मन्द्रनिःस्वनम् ॥१०५॥ मृगेन्द्रमिन्दुसच्छायवपुषं रक्तकन्धरम् । ज्योत्स्नया संध्यया चैव घटिताङ्गमिक्षत ॥१०६॥ पद्म पद्ममयोत्तुङ्गविष्टर सुरवारणैः । स्नाप्यां हिरण्मयः कुम्भैरदर्शत् स्वामिव श्रियम् ॥१०७॥ दामनी कुसुमामोद-समालग्नमदालिनी । तज्म कृतरिवारब्धगाने सानन्दमैक्षत ॥१०॥ समप्रबिम्बयुज्ज्योत्स्न ताराधीशं सतारकम् । स्मरं स्वमिव वक्त्राजं समाक्तिकमलोकयत् ॥१९॥ विधूतध्वान्तमुयन्तं मास्वन्तमुदयाचलात् । सातकुम्भमयं कुम्ममिवादाक्षीत् स्वमङ्गले ॥११॥
कुम्मी हिरण्मयो पद्मपिहितास्यो न्यलोकता। स्तनकुम्माविवास्मीयौ समासक्तकराम्बुजो ॥११॥ सुसज्जित-सी जान पड़ती थी॥१०॥ अथवा उस समय वह पृथिवी भगवान् वृषभदेवकी माता मरुदेवीकी सदृशताको प्राप्त हो रही थी क्योंकि मरुदेवी जिस प्रकार नाभिराजको प्रिय थी उसी प्रकार वह पृथिवी उन्हें प्रिय थी और मम्देवी जिस प्रकार रजस्वला न होकर पुष्पवती थी उसी प्रकार वह पृथिवी भी रजस्वला (धूलिसे युक्त) न होकर पुष्पवती (जिसपर फूल बिखरे हुए थे) थीं ॥१०॥
- अनन्तर किसी दिन मरुदेवो राजमहल में गंगाकी लहरोंके समान सफेद और रेशमी चहरसे उज्ज्वल कोमल शय्या पर सो रही थी। सोते समय उसने रात्रिके पिछले प्रहर में जिनेन्द्र देवके जन्मको सूचित करनेवाले तथा शुभ फल देनेवाले नीचे लिखे हुए सोलह स्वप्न देखे ।।१०२-१०३।। सबसे पहले उसने इन्द्रका ऐरावत हाथी देखा। वह गम्भीर गर्जना कर रहा था तथा उसके दोनों कपोल और सूंड़ इन तीन स्थानोंसे मद झर रहा था इसलिए वह ऐसा जान पड़ता था मानो गरजता और बरसता हुआ शरद ऋतुका बादल ही हो ॥१०४।। दूसरे स्वप्न में उसने एक बैल देखा । उस बैलके कन्धे नगाड़के समान विस्तृत थे, वह सफेद कमलके समान कुछ-कुछ शुक्ल वर्ण था। अमृतको राशिके समान सुशोभित था और मन्द्र गम्भीर शन्द कर रहा था ॥१०५।। तीसरे स्वप्नमें उसने एक सिंह देखा । उस सिंहका शरीर चन्द्रमाके समान शुक्लवर्ण था और कन्धे लाल रंगके थे इसलिए वह ऐसा मालूम होता था मानो चाँदनी ओर सन्ध्याक द्वारा ही उसका शरीर बना हो ॥१०६|| चौथे स्वप्नमें उसने अपनी शोभाके समान लक्ष्मीको देखा। वह लक्ष्मी कमलोंके बने हुए ऊंचे आसनपर बैठी थी और देवोंके हाथी सुवर्णमय कलशोंसे उसका अभिषेक कर रहे थे ॥१८७|| पाँचवें स्वप्नमें उसने बड़े ही आनन्दके साथ दो पुष्प-मालाएँ देखीं। उन मालाओंपर फूलोंकी सुगन्धिके कारण बड़े-बड़े भौरे आ लगे थे और वे मनोहर झंकार शव्द कर रहे थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो उन मालाओंने गाना ही प्रारम्भ किया हो॥१०८।। छठे स्वप्नमें उसने पूर्ण चन्द्रमण्डल देखा। वह चन्द्रमण्डल ताराओंसे सहित था और उत्कृष्ट चाँदनीसे युक्त था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो मोतियोंसे सहित हँसता हुआ अपना (मरुदेवीका) मुख-कमल ही हो ॥१०९।। सातवें स्वप्नमें उसने उदयाचलसे उदित होते हुए तथा अन्धकारको नष्ट करते हुए सूर्यको देखा। वह सूर्य ऐसा मालूम होता था मानो मरुदेवीके माङ्गलिक कार्यमें रखा हुआ सुवर्णमय कलश ही हो ॥११०।। आठवें स्वप्नमें उसने सुवर्णके दो कलशकले। उन कलशोंके मुख कमलोंसे ढके हुए थे जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो हस्तकमलसे आच्छादित
१. सा.श्यम । २. सच्छाये अ०, स०. म०. ल.। ३. कपोलदयनामिकामिति विस्थानमदसा. विणाम् । ४. आसारण सहितम् । ५. सदशम् । ६. मन्दनिःस्वनम् म०, ल०। ७. समालग्नमहालिनी।