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द्वादहां, पर्व
२५७ बभौ सुकोशला भाविविषयस्यालवीयसः । नाभिलक्ष्मी दधानासौ राजधानी मुविश्रुगा ।। १९॥ सनृपालयमुद्वप्रं 'दीप्रशालं सखातिकम् । तद्वत्स्यनगरारम्भ प्रतिच्छन्दायितं पुरम् ।।८।। पुण्येऽहनि मुहूत्ते च शुभयोगे शुभोदये । पुण्याहघोषणां तत्र सुराश्चक्रुः प्रमोदिनः ॥४१॥
अध्यवात्तां तदानीं तो तमयोध्यां महर्चािकाम् । दम्पती परमानन्दादातसम्पत्परम्परी ॥८॥ विश्वदृश्यैतयोः पुत्रा जनितेति शतक्रतुः । तयोः पूजां व्यधत्तोच्चैरभिषेकपुरस्सरम् ॥४३॥ षडभिसिरथैतस्मिन् स्वर्गादवतरिष्यति । रत्नदृष्टिं दिवो देवाः पातयामासुरादरात् ॥१४॥ संक्रन्दननियुक्तन धनदेन निपातिता । सामात् स्वसंपदौरसुक्यात् 'प्रस्थितेवाप्रती विभोः ॥८॥ "हरिन्मणिमहानीलपनरागांशुसंकरः" । साधुतत् सुरचापश्रीः 'प्रगुणत्वमिवाश्रिता ॥८६॥
धाररावतस्थूल समायतकराकृतिः । बभौ पुण्यद्रमस्येव पृथुः प्रारोहसन्ततिः ॥८॥ "नोरन्ध्र रोदसी रुवा राया" धारा पतन्त्यभात् । सुरव मैरिवोन्मुक्ता सा प्रारोहपरम्परा ॥८॥ . . रेजे हिरण्मयी वृष्टिः खानणानिपतन्त्यसो । ज्योतिर्गणप्रभवोच्चैरायान्ती सुरसदद्मनः ॥८९।।
वह 'विनीता' भी मानी गयी थी-उसका एक नाम 'विनीता' भी था॥७८॥ वह सकोशला नामकी राजधानी अत्यन्त प्रसिद्ध थी और आगे होनेवाले बड़े भारी देशको नाभि (मध्यभागकी). शोभा धारण करती हुई सुशोभित होती मी ॥७९॥ राजभवन, वप्र, कोट और खाईसे सहित वह नगर ऐसा जान पड़ता था मानो आगे-कर्मभूमिके समयमें होनेवाले नगरोंकी रचना प्रारम्भ करनेके लिए एक प्रतिबिम्ब-नकशा ही बनाया गया हो।।। अनन्तर उस अयोध्या नगरीमें सब देवोंने मिलकर किसी शुभ दिन, शुभ मुहूर्त, शुभ योग और शुभ लग्नमें हर्पित होकर पुण्याहवाचन किया ॥८१॥ जिन्हें अनेक सम्पदाआंकी परम्परा प्राप्त हुई थी महाराज नाभिराज और मरुदेवीने अत्यन्त आनन्दित होकर पुण्याहवाचनके समय ही उस अतिशय ऋद्धियुक्त अयोध्या नगरीमें निवास करना प्रारम्भ किया था ।।८।। "इन दोनोंके सर्वज्ञ ऋषभदेव पुत्र जन्म लेंगे" यह समझकर इन्द्रने अभिषेकपूर्वक उन दोनोंकी बड़ी पूजा की थी॥८३ ।। ___ तदनन्तर छह महीने बाद ही भगवान् वृषभदेव यहाँ स्वर्गसे अवतार लेंगे ऐसा जानकर देवोंने बड़े आदरके साथ आकाशसे रत्नोंकी वर्षा की ।।८४॥ इन्द्र के द्वारा नियुक्त हुए कुवेरने जो रत्नकी वर्षा की थी वह ऐसी सुशोभित होती थी मानो वृषभदेवकी सम्पत्ति उत्सुकताके कारण उनके आनेसे पहले ही आ गयी हो ॥८५|| वह रत्नवृष्टि हरिन्मणि इन्द्रनील मणि और पद्मराग आदि मणियोंकी किरणों के समूहसे ऐसी देदीप्यमान हो रही थी मानो सरलताको प्राप्त होकर (एक रेखामें सीधी होकर) इन्द्रधनुषकी शोभाही आ रही हो।।८६॥ ऐरावत हाथीकी सूड़के समान स्थूल, गोल और लम्बी आकृतिको धारण करनेवाली वह रत्नोंकी धारा ऐसी शोभायमान होती थी मानो पुण्यरूपी वृक्षके बड़े मोटे अंकुरोंकी सन्तति ही हो ॥८७॥ अथवा अतिशय सघन तथा आकाश पृथिवीको रोककर पड़ती हुई वह रत्नोंकी धारा ऐसी सुशोभितहोती थी मानो कल्पवृक्षोंके द्वारा छोड़े हुए अंकुरोंकी परम्परा ही हो ।।८८।। अथवा आकाश रूपी आँगनसे पड़ती हुई वह सुवर्णमयी वृष्टि ऐसी शोभायमान हो रही थो मानो स्वर्गसे
१. दीप्तशा म०, ल० । २. प्रतिनिधिरिवाचरितम् । ३. शुभग्रहोदये शुभलग्ने इत्यर्थः । 'राशीनामुदयो लग्नं ते तु मेपवृषादयः' इत्यभिधानात् । ४. 'वस निवासे' लुङ् । ५. नन्दावाप्त अ०, ५०, द०, स०, म । ६. भविष्यति । ७. पुरस्सराम् अ०, द०, स०, म०, ल०। ८. आगमिष्यति सति । ९. आगता। १०. मरकत । ११. शुकेसरैः म०, ल० । १२. ऋजुत्वम् । १३. 'प' पुस्तके ८६.८७ श्लोकयोः क्रमभेदोऽस्ति । १४. समातायाम् । १५. शिफासमूहः । १६. निविडम् । १७. भूम्याकाशे । १८. रत्नमुवर्णानाम् ।