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द्वादशं पर्व
पुण्यसम्पत्तिरेवास्या जननीत्वमुपागता। 'सखीभूयं गता लजा गुणाः परिजनायिताः ॥६०॥ रूपप्रभावविज्ञानैरिति रूढिं परांगता। भर्तु मनोगजालाने भेजे साऽऽलान यष्टिताम् ॥६॥ तद्वक्वेन्दोः स्मितज्योत्स्ना तन्वती नयनोत्सवम् । मर्तु श्वेतोऽम्बुधेः क्षोभमनुवेलं समातनोत ॥३२॥ रूपलावण्यसम्पत्त्या पत्या श्रीरिव सा मता । 'मताविव मुनिस्तस्यामतानीन् स परां शृतिम् ॥६३॥ परिहासेष्वमर्मस्पृक सम्भोगप्वनुवतिनी। साचिव्यमकरोत्तस्य नर्मणः प्रणयस्य च ॥६॥ सामवत् प्रेयसी तस्य प्राणेभ्योऽपि गरीयसी । शचीव देवराजस्य परा"प्रणयभूमिका ॥६५॥ स तया कल्पवल्ल्यव लसदंशुकभूषया । समाश्लिष्टतनुः श्रीमान् कल्पद्रम इवाधुनत् ॥६६॥ स एव पुण्यवांल्लोके सैव पुण्यवती सती। ययोरयोनिजन्मा सौ वृषभो "भवितात्मजः ॥६॥ तो दम्पती तदा तत्र भोगेकरसतां गतौ । मोगभूमिश्रियं साक्षाचक्रतुर्वियुतामपि ॥६॥ ताभ्यामलंकृते पुण्ये देशे कल्पांघ्रिपात्ययं । तत्पुण्यैर्मुहुराहूतः पुरुहूतः पुरी न्यधात् ॥६९॥
सुराः ससंभ्रमाः सद्यः पाकशासनशासनात् । तां पुरी परमानन्दाद् न्यधुः सुरपुरीनिमाम् ॥७॥ प्रेरित हुए उत्तम देवोंने बड़ी विभूतिके साथ उसका विवाहोत्सव किया था ॥ ५९ ॥ पुण्यरूपी सम्पत्ति उसके मातृभावको प्राप्त हुई थी, लज्जा सखी अवस्थाको प्राप्त हुई थी और अनेक गुण उसके परिजनोंके समान थे। भावार्थ-पुण्यरूपी सम्पत्ति ही उसकी माता थी, लज्जाही सखी थी और दया, उदारता आदि गुण ही उसके परिवार के लोग थे ॥६०॥ रूप प्रभाव और विज्ञान आदिके द्वारा वह बहुत ही प्रसिद्धिको प्राप्त हुई थी तथा अपने स्वामी नाभिराजके मनरूपी हाथीको बाँधनेके लिए स्वम्भेके समान मालूम पड़ती थी।। ६१ ॥ उसके मुखरूपी चन्द्रमाकी मुसकानरूपी चाँदनी, नेत्रों के उत्सवको बढ़ाती हुई अपने पति नामिराजके मनरूपी समुद्रके भोभको हर समय विस्तृत करती रहती थी ।। ६२ ।। महाराज नाभिराज रूप और लावण्यरूपी सम्पदाके द्वारा उसे साक्षात् लक्ष्मीके समान मानते थे और उसके विषयमें अपने उत्कृष्ट सन्तोषको उस तरह विस्तृत करते रहते थे जिस तरह कि निर्मल बुद्धिके विषयमें मुनि अपना उत्कृष्ट सन्तोंप विस्तृत करते रहते हैं।६।। वह परिहासके समय कुवचन बोलकर पतिके मर्म स्थानको कष्ट नहीं पहुँचाती थी और सम्भोग-कालमें सदा उनके अनुकूल प्रवृत्ति करती थी इसलिए वह अपने पति नाभिराजके परिहास्य और स्नेहके विषयमें मन्त्रिणीका काम करती थी ।। ६४ ॥ वह मरुदेवी नाभिराजको प्राणोंसे भी अधिक प्यारी थी, वे उससे उतना ही स्नेह करते ये जितना कि इन्द्र इन्द्राणीसे करता है ।। ६५ ॥ अतिशय शोभायुक्त महाराज नाभिराज देदीप्यमान वस्त्र और आभूषणोंसे सुशोभित उस मरुदेवीसे आलिंगित शरीर होकर ऐसे शोभायमान होते थे जैसे देदीप्यमान वस्त्र और आभूषणोंको धारण करनेवाली कल्पलतासे वेष्टित हुआ (लिपटा हुआ) कल्पवृक्ष ही हो॥६६॥ संसार में महाराज नाभिराज ही सबसे अधिक पुण्यवान थे और मरुदेवी ही सबसे अधिक पुण्यवतीथी। क्योंकि जिनके स्वयम्भू भगवान् वृषभदेव पुत्र होंगे उनके समान और कौन हो सकता है ? ॥ ६७ ।। उस समय भोगोपभोगोंमें अतिशय तल्लीनताको प्राप्त हुए वे दोनों दम्पती ऐसे जान पड़ते थे मानो भोगभूमिकी नष्ट हुई लक्ष्मीको ही साक्षात् दिखला रहे हों ।। ६८॥ मरुदेवी और नाभिराजसे अलंकृत पवित्र स्थानमें जब कल्पवृक्षोंका अभाव हो गया तब वहाँ उनके पुण्यके द्वारा बार-बार बुलाये हुए इन्द्रने एक नगरीकी रचना की ।।६९॥ इन्द्रकी आज्ञासे शीघ्र ही अनेक उत्साही देवोंने बड़े आनन्दके साथ
१. सखोत्वम। २.-नैरतिरूढिं ब०, १०, द.। ३. बन्धने । ४. बन्धस्तम्भत्वम । ५. भ;। ६. बुद्धौ । ७. सन्तोषम् । ८. सहायत्वम् । ९. -मकरोत्सास्य अ०, ५०, स०, द०, म०, ल०। १०. क्रीडायाः। ११. स्नेहस्थानम् । १२. स्वयम्भूः। १३. भविष्यति । १४. भोगमुख्यानुरागताम् । १५. वियुक्ताम् । अपेतामित्यर्थः ।