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आदिपुराणम् कलत्रस्थानमेतस्याः स्थानीकृत्य मनोभुवा । विनिर्जितं जगन्नूनमनूनपरिमण्डलम् ॥२८॥ कटीमण्डलमेतस्याः काशीसालपरिष्कृतम् । मन्ये दुर्गमनङ्गस्य जगहमरकारिणः ॥२९॥ कसदंशुक्संसक्तं काञ्चीवेष्टं वभार सा । फणिनं 'स्तनिर्मोकमिव चन्दनवल्लरी ॥३०॥ रोमराजो विनीलास्या रेजे मध्येतनूदरम् । हरिनीलमयीवावष्टम्मयष्टिमनोभुवः ॥३॥ तनुमध्यं बभारासौ वलिमं निम्ननामिकम् । शरणदीव सावतं स्रोत: प्रतनुवीचिकम् ॥३२॥ स्तनावस्याः समुत्तको रेजतुः परिणाहिनौ । यौवनश्रीविलासाय डाचलाविव ॥३३॥ एतांशुकमसौ वः कुलमाङ्क" कुचद्वयम् ।। वीचिरुद्धमिवानोङ्गमिथुन सुरनिम्नगा ॥३४॥ स्तनावलग्न संलग्नहाररोचिरसौ बमो । सरोज कुड्मलाभ्यर्णस्थितफेना यथाब्जिनी ॥३५॥ "भ्यराजि कन्धरणास्या स्तनुराजीविराजिना' । उल्लिल्य" घटितेनेव धात्रा निर्माणकौशलात् ॥३॥
अधिकन्धरमाबद्ध हारयष्टिर्यभादसौ। पतगिरिसरिस्त्रोत: "सानुलेखेव ऋङ्गिणः ॥३७॥ पराजित कर दिया था ।।२७। इसमें कोई सन्देह नहीं कि कामदेवने मरुदेवीके स्थूल नितम्बमण्डलको ही अपना स्थान बनाकर इतने बड़े विस्तृत संसारको पराजित किया था ।।२al करधनीरूपी कोटसे घिरा हुआ उसका कटिमण्डल ऐसा मालूम होता था मानो जगत्-भरमें विप्लव करनेवाले कामदेवका किला ही हो ॥ २९ ॥ जिस प्रकार चन्दनकी लता, जिसकी काँचली निकल गयी है ऐसे सर्पको धारण करती है उसी प्रकार वह मरुदेवी भी शोभायमान अधोवससे सटी हुई करधनीको धारण कर रही थी ॥३०॥ उस मरुदेवीके कृश उदरभागपर अत्यन्त काली रोमोंकी पंक्ति ऐसी सुशोभित होती थी मानो इन्द्रनील मणिकी बनी हुई कामदेवकी आलम्बनयष्टि ( सहारा लेनेकी लकड़ी) ही हो ॥३१॥ जिस प्रकार शरदऋतुकी नदी भँवरसे युक्त और पतली-पतली लहरोंसे सुशोभित प्रवाहको धारण करती है उसी प्रकार वह मरुदेवी भो त्रिवलिसे युक्त और गम्भीर नाभिसे शोभायमान, अपने शरीरके मध्यभागको धारण करती थी ॥३२॥ उसके अतिशय ऊँचे और विशाल स्तन ऐसे शोभायमान होते थे मानो तारुण्य लक्ष्मीकी क्रीड़ाके लिए बनाये हुए दो क्रीडाचल ही हों॥३३॥ जिस प्रकार आकाशगंगा लहरोंमें रुके हुए दो चक्रवाक पक्षियोंको धारण करती है उसी प्रकार वह मरुदेवी जिनपर केशर लगी हुई है और जो वस्त्रसे ढके हुए हैं ऐसे दोनों स्तनोंको धारण कर रही थी ॥३४॥ जिसके स्तनोंके मध्य भागमें हारकी सफेद-सफेद किरणें लग रही थीं ऐसी वह मरदेवी उस कमलिनीकी तरह सुशोभित हो रही थी जिसके कि कमलोंकी बोंड़ियोंके समीप सफेद-सफेद फेन लग रहा है।।३५ ।। सूक्ष्म रेखाओंसे उसका शोभायमान कण्ठ बहुत ही सुशोभित हो रहा था और ऐसा जान पड़ता था मानो विधाताने अपना निर्माणसम्बन्धी कौशल दिखाने के लिए ही सूक्ष्म रेखाएँ उकेरकर उसकी रचना की हो ॥३६।। जिसके गलेमें रत्नमय हार लटक रहा है ऐसी वह मरुदेवी, पर्वतकी उस शिखरके समान शोभायमान होती थी जिसपर कि ऊपरसे
१. कलत्र नितम्ब । 'कलत्रं श्रोणिभार्ययोः' इत्यभिधानात् । २. निश्चयेन । ३. अयं श्लोकः पुरुदेवचम्पकारेण अहंद्दासेन स्वकोये पुरुदेवचम्पकाव्ये चतुर्थस्तवके व्यशीतिपृष्ठे ग्रन्याङ्गतां प्रापितः । ४. अलंकृतम् । ५. डमरः विप्लवः। ६. स्रस्त-च्युत । ७. वलिरस्यास्तीति बलिभम् । ८. प्रवाहः । ९. स्वल्पतरङ्गकम् । १०. विशालवन्तौ 'परिणाहो विशालता' इत्यभिधानात् । परिणाहिती प०, स०, द.। ११. कुङ्कमाक्तम् प०, अ०। १२ रथाङ्गमिथुनम् । चक्रवाकयुगलमित्यर्थः 'क्लोबेऽनः शकटोऽस्त्री स्यात्' इत्यभिधानात् । १३. अवलग्न मध्य । १४. कुड्मला-द., स., म., ल०,। १५. भावे लुङ् । १६. स्वल्परेखा । १७. विभासिता अ०, स०, म०, ल०। १८. उत्कीर्य । १९. निर्माणं सर्जन ।२०-मारब्धब०।२१ नितम्बलेखा।