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द्वादशं पर्व
२५१ नखैः कुरबकच्छायां क्रमौ जित्वाप्यनिर्वृतो'। विजिग्यात गतेनास्था हंसीनां गतिविभ्रमम् ॥२१॥ मणिनूपुरमङ्कारमुखरौ सुभ्रवः क्रमौ । पनाविव रखासंगती रुचिमापतुः ॥२२॥ 'निगूढगुल्फसंधिवात् युकपाणिपरिग्रहात् । श्रितो यानासनाभ्यां व तस्कमो विजिगीषुताम् ॥२३॥ शोमा जाद्वये यास्याः काप्यन्यत्र न सास्स्यतः । अन्योऽन्योपमयैवाप्तवर्णनं तन्म वर्ण्यते ॥२४॥ जानुद्वयं समाश्लिष्टं यदस्याः कामनीयकम् । तदेवालं जगज्जेतुं किं तसं चिन्तयानया ॥२५॥ ऊरुद्वयमुदारश्रि चारु हारि सुखावहम् । स्पर्द्धयेव सुरस्त्रीमिरतिरम्यं बमार सा ॥२६॥ वामोरुरिति या रूढिस्तां स्वसात् कर्तुमन्यथा। वामवृती कृतावूरू मन्येऽन्यत्रीजयेऽमुया ॥२७॥
उसके दोनों चरण नखोंके द्वारा कुरबक जातिके वृक्षोंको जीतकर भी सन्तुष्ट नहीं हुए थे इसीलिए उन्होंने अपनी गतिसे हंसिनीकी गतिके विलासको भी जीत लिया था ॥२१॥ सुन्दर भौंहोंवाली उस मरुदेवीके दोनों चरण मणिमय नूपुरोंकी झंकारसे सदा शब्दायमान रहते थे इसलिए गुंजार करते हुए भ्रमरोंसे सहित कमलोंके समान सुभोभित होते थे।।२२।। उसके दोनों चरण किसी विजिगीषु (शत्रुको जीतनेकी इच्छा करनेवाले) राजाको शोभा धारण कर रहे थे, क्योंकि जिस प्रकार विजिगीषु राजा सन्धिवार्ताको गुप्त रखताहै अर्थात् युद्ध करते हुए भी मनमें सन्धि करनेकी भावना रखता है, पाणि (पीछेसे सहायता करनेवाली) सेनासे युक्त होता है, शत्रके प्रति यान (यद्धके लिए प्रस्थान) करता है और आसन (परिस्थितिवश अपनेही स्थानपर चुपचाप रहना) गुणसे सहित होता है उसी प्रकार उसके चरण भी गाँठोंकी सन्धियाँ गुप्त रखते थे अर्थात् पुष्टकाय होनेके कारण गाँठोंकी सन्धियाँ मांसपिण्डमें विलीन थीं इसलिए बाहर नहीं दिखती थीं, पाणि (एडी) से युक्त थे, मनोहर यान (गमन) करते और सुन्दर आसन (बैठना आदिसे)सहित थे। इसके सिवाय जैसे विजिगीषु राजा अन्य शत्रु राजाओंको जीतना चाहता है वैसे ही उसके चरण भी अन्य खियोंके चरणोंकी शोभा जीतना चाहते थे ॥ २३ ॥ उसकी दोनों जंघाओंमें जो शोभा थी वह अन्यत्र कहीं नहीं थी। उन दोनोंकी उपमा परस्पर ही दी जाती थी अर्थात् उसको वाम जंघा उसकी दक्षिण जंघाके समान थी और दक्षिण जंघा वाम जंघाके समान थी। इसलिए ही उन दोनोंका वर्णन अन्य किसीकी उपमा देकर नहीं किया जा सकता था ॥२४॥ 'अत्यन्त मनोहर और परस्परमें एक दूसरेसे मिले हुए उसके दोनों घुटने ही क्या जगत्को जीतनेके लिए समर्थ हैं, इस चिन्तासे कोई लाभ नहीं था क्योंकि वे अपने सौन्दर्यसे जगत्को जीत ही रहे थे ॥२५॥ उसके दोनों ही ऊरु उत्कृष्ट शोभाके धारक थे, सुन्दर थे, मनोहर थे और सुख देनेवाले थे, जिससे ऐसा मालूम पड़ता था मानो देवांगनाओंके साथ स्पर्धा करके ही उसने ऐसे सुन्दर ऊरु धारण किये हों ।। २६ ।। मैं ऐसा मानता हूँ कि अभीतक संसारमें जो 'वामोर' (मनोहर ऊरुवाली) शब्द प्रसिद्ध था उसे उस महदेवीने अन्य प्रकारसे अपने स्वाधीन करनेके लिए ही मानोअन्य स्त्रियोंके विजय करने में अपने दोनों ऊरुओंको वामवृत्ति (शत्रुके समान बरताव करनेवाले) कर लिया था। भावार्थ-कोशकारोंने खियोंका एक नाम 'कामोरु' भी लिखा है जिसका अर्थ होता है सुन्दर ऊरुवाली स्त्री । परन्तु मरुदेवीने 'वामोर' शब्दको अन्य प्रकारसे ( दूसरे अर्थसे) अपनाया था। वह 'वामोरु' शब्दका अर्थ करती थी जिसके ऊरु शत्रुभूत हों ऐसी स्त्री'। मानो उसने अपनी उक्त मान्यताको सफल बनानेके लिए ही अपने ऊरुओंको अन्य नियोंके ऊरओंके सामने वामवृत्ति अर्थात् शत्रुरूप बना लिया था। संक्षेपमें भाव यह है कि उसने अपने ऊरओंकी शोभासे अन्य स्त्रियोंको
१. असुखो। २. गमनेन । ३. गुण्ठिका [ धुटिका]। ४. -स्यात् म०, ल० । ५. प्राप्तकीर्तनम् । ६. जानु ऊरुपवं । ७. सुखाहरम् द०, सं०। ८. वक्रवत्ती।