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द्वादशं पर्व
अथ तस्मिन् महाभागे' स्वर्लोकाद् भुवमेष्यति े । यद्वृत्तकं जगत्यस्मिन् तद्वक्ष्ये शृणुधुना ॥१॥ अत्रान्तरं पुराणार्थकोविदं वदतां वरम् । पप्रच्छुर्मुनयो नम्रा गौतमं गणनायकम् ॥२॥ भगवन् भारतं वर्षे भोगभूमि स्थितिच्युतौ । कर्मभूमिव्यवस्थायां प्रसृतायां यथायथम् ॥ ३ ॥ तथा कुलधरोत्पत्तिस्त्वया प्रागेव वर्णिता । नामिराजश्च तत्रान्त्यो 'विश्वक्षत्रगणाग्रणीः ॥४॥ स एष धर्मसर्गस्य सूत्रधारं ' महाधियम् । इक्ष्वाकुज्येष्ठमृषभं क्वाश्रमे समजीजनत् ॥५॥ तस्य स्वर्गावतारादिकल्याणर्द्विश्व कीहशी । इदमेतत् स्वग्वा बोद्धमिच्छामस्त्वदनुग्रहात् ॥ ६॥ "तत्प्रश्नावसितानित्थं व्याजहार गणाधिपः । स 'तान् विकल्मषान् कुर्वन् शुचिभिर्दशनांशुभिः ॥७॥ इह जम्बूमति द्वीपे भरते खचराचलात् । दक्षिणे मध्यमे' खण्डे कालसन्धी पुरोदिते ॥८॥ पूर्वोक्तकुल कृत्स्वन्त्यो नाभिराजोऽग्रिमोऽप्यभूत् । व्यावर्णितायुरुत्सेधरूपसौन्दर्यविभ्रमः ॥९॥ सनामिर्माविनां राज्ञां सनाभिः " स्वगुणांशुभिः । मास्त्रानिव बभौ लोके मास्वन्मौलिर्महाद्युतिः ॥१०॥ शशीव स कलाधारस्तेजस्वी भानुमानिव । प्रभुः शक्र इवाभीष्टफलदः कल्पशाखिवत् ॥ ११ ॥
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अनन्तर गौतम स्वामी कहने लगे कि जब वह वज्रनाभिका जीव अहमिन्द्र, स्वर्गलोकसे पृथ्वीपर अवतार लेनेके सम्मुख हुआ तब इस संसार में जो वृत्तान्त हुआ था अब मैं उसे ही कहूँगा । आप लोग ध्यान देकर सुनिए || १|| इसी बीचमें मुनियोंने नम्र होकर पुराणके अर्थको जाननेवाले और वक्ताओंमें श्रेष्ठ श्री गौतम गणधरसे प्रश्न किया ||२|| कि हे भगवन्, जब इस भारतवर्ष में भोगभूमिकी स्थिति नष्ट हो गयी थी और क्रम-क्रमसे कर्मभूमिकी व्यवस्था फैल चुकी थी उस समय जो कुलकरोंकी उत्पत्ति हुई थी उसका वर्णन आप पहले ही कर चुके हैं । उन कुलकरोंमें अन्तिम कुलकर नाभिराज हुए थे जो कि समस्त क्षत्रिय समूहके अगुआ (प्रधान) थे । उन नाभिराजने धर्मरूपी सृष्टिके सूत्रधार, महाबुद्धिमान् और इक्ष्वाकु कुलके सर्वश्रेष्ठ भगवान् ऋषभदेवको किस आश्रम में उत्पन्न किया था ? उनके स्वर्गावतार आदि कल्याणकोंका ऐश्वर्य कैसा था ? आपके अनुग्रहसे हम लोग यह सब जानना चाहते हैं ||३६|| इस प्रकार जब उन मुनियोंका प्रश्न समाप्त हो चुका तब गणनायक गौतम स्वामी अपने दाँतोंकी निर्मल किरणोंके द्वारा मुनिजनोंको पापरहित करते हुए बोले || || कि हम पहले जिस कालसन्धिका वर्णन कर चुके हैं उस कालसन्धि (भोगभूमिका अन्त और कर्मभूमिका प्रारम्भ होने) के समय इसी जम्बू द्वीपके भरत क्षेत्र में विजयार्ध पर्वतसे दक्षिणकी ओर मध्यम-आर्य खण्डमें नाभिराज हुए थे। वे नाभिराज चौदह कुलकरोंमें अन्तिम कुलकर होनेपर भी सबसे अग्रिम ( पहले ) थे (पक्षमें सबसे श्रेष्ठ थे) । उनकी आयु, शरीरकी ऊँचाई, रूप, सौन्दर्य और विलास आदिका वर्णन पहले किया जा चुका है ||८-९|| देदीप्यमान मुकुट से शोभायमान और महाकान्तिके धारण करनेवाले वे नाभिराज आगामी कालमें होनेवाले राजाओंके बन्धु थे और अपने गुप्णरूपी किरणोंसे लोकमें सूर्यके समान शोभायमान हो रहे थे ||१०|| वे चन्द्रमाके समान कलाओं ( अनेक विद्याओं) के आधार थे, सूर्यके समान तेजस्वी थे, इन्द्रके समान ऐश्वर्यशाली थे और कल्पवृक्षके समान मनचाहे फल देनेवाले थे ||११||
१. महाभाग्यवति । २. आगमिष्यति सति । ३. अवसरे । ४. स्थितौ । ५. तदा अ०, प०, स० म०, द०, ल० । ६. सकलक्षत्रियसमूहः । ७. सृष्टेः । ८. प्रवर्तकम् । ९ स्थाने । १०. तम्मुनीनां प्रश्नावसाने । ११. मुनीन् । १२. आर्यखण्डे । १३. बन्धुः । १४. -भिश्च गुणा - प०, ६० । १५. तेजः ।
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