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एकादशं पर्व
मालिनीवृत्तम् निरतिशयमुदारं निष्प्रवीचारमावि
____ कृतसुकृतफलानां कल्पलोकोत्तराणाम् । सुखममरवराणं दिव्यमण्याजरम्य'
____ शिवसुखमिव तेषां संमुखायातमासीत् ॥२१॥ सुखमसुग्वमितीदं संसृतो देहमाजां
- द्वितयमुदितमाः कर्मबन्धानुरूपम् । सुकृत विकृतभेदात्त कर्म द्विधोक्तं
मधुरकटुकपार्क भुक्तमेकं तथानम् ॥२१९॥ सुकृतफलमुदारं विद्धि सर्वार्थसिद्धौ
दुरितफलमुदग्रं सप्तमीनारकाणाम् । शमदमयमयोगैरग्रिमं पुण्यभाजा
मशमदमयमानां कर्मणा दुष्कृतेन ॥२२०॥
सुखी कहलाते हैं तब जिनके शरीर अथवा अन्य अल्प परिग्रह विद्यमान हैं ऐसे अहमिन्द्र भी अपेक्षाकृत सुखी क्यों न कहलायें ? ॥२१७॥ जिनके पुण्यका फल प्रकट हुआ है ऐसे स्वर्गलोकसे आगे (सर्वार्थसिद्धिमें) रहनेवाले उन वनाभि आदि अहमिन्द्रोंको जो सुख प्राप्त हुआ था वह ऐसा जान पड़ता था मानो मोक्षका सुख ही उनके सम्मुख प्राप्त हुआ हो क्योंकि जिस प्रकार मोभका सुख अतिशयरहित, उदार, प्रवीचाररहित, दिव्य (उत्तम) और स्वभावसे ही मनोहर रहता है उसी प्रकार उन अहमिन्द्रोंका सुख भी अतिशयरहित, उदार, प्रवीचाररहित, दिव्य (स्वर्गसम्बन्धी) और स्वभावसे ही मनोहर था। भावार्थ-मोक्षके सुख और अहमिन्द्र अवस्थाके सुखमें भारी अन्तर रहता है तथापि यहाँ श्रेष्ठता दिखाने के लिए अहमिन्द्रोंके सुखमें मोक्षके सुखका सादृश्य बताया है ।। २१८॥ इस संसारमें जीवोंको सुख-दुःख होते हैं वे दोनों ही अपने-अपने कर्मवन्धके अनुसार हुआ करते हैं ऐसा श्री अरहन्त देवने कहा है। वह कर्म पुण्य और पापके भेदसे दो प्रकारका कहा गया है। जिस प्रकार खाये हुए एक ही अनका मधुर और कटुक रूपसे दो प्रकारका विपाक देखा जाता है उसी प्रकार उन पुण्य और पापरूपी कर्मोंका भी क्रमसे मधुर (सुखदायी) और कटुक (दुःखदायी) विपाकफल-देखा जाता है ।।२१९॥ पुण्यकर्माका उत्कृष्ट फल सर्वार्थसिद्धिमें और पापकर्मोंका उत्कृष्ट फल सप्तम पृथिवीके नारकियोंके जानना चाहिए । पुण्यका उत्कृष्ट फल परिणामोंको शान्त रखने, इन्द्रियोंका दमन करने और निर्दोष चारित्र पालन करनेसे पुण्यात्मा जीवोंको प्राप्त होता है और पापका उत्कृष्ट फल परिणामोंको शान्त नहीं रखने, इन्द्रियोंका दमन नहीं करने तथा निर्दोष चारित्र पालन नहीं करनेसे पापी जीवोंको प्राप्त होता है ।। २२० ॥ जिस प्रकार
... कल्पातीतानाम् । २. अनुपाधिमनोज्ञम् । ३. -तदुरितभेदा- अ०, १०, स०, ८०, म०, ल.
४. परिणमनम् । ५. योगः ध्थानम । ६. प्रथमम ।