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एकादशं पर्व 'किरीटाङ्गदकेयूरकुण्डलादिपरिष्कृतः । स्रग्वी सदंशुकः श्रीमान् सोऽधात् कल्पद्रुमश्रियम् ॥१३३॥ अणिमादिगुणैः श्लाघ्यां दधदै क्रियिकों तनुम् । स्वक्षेत्रे विजहारासौ जिनेन्द्रार्चाः समर्चयन् ॥१३॥ सङ्कल्पमात्रनिवृत्त दिव्यैर्गन्धाक्षतादिभिः । पुण्यानुबन्धिनी पूजां स जैनी विधिवद् व्यधात् ॥१३५॥ तत्रस्थ एव चाशेषभुवनोदरवर्तिनीः । आनर्चा; जिनेन्द्राणां सोऽप्रणीः पुण्यकर्मणाम् ॥१३६॥ जिना स्तुतिवादेषु वाग्वृत्तिं तद्गुणस्मृतौ । स्वं मनस्तन्नती कायं पुण्यधीः सन्न्ययोजयत् ॥१३७॥ धर्मगोठीवनाहूतमिलितैः स्वसमृदिभिः। संभाषणादरोऽस्यासीदहमिन्द्रः शुमंयुभिः ॥१३॥ क्षालयन्निव दिग्भित्तीः स्मितांशुसलिलप्लवैः । सहाहमिन्द्ररुन्द्रश्रीः स चक्रे धर्मसंकथाम् ॥१३९॥ स्वावासोपान्तिकोद्यानसरःपुलिनभूमिषु । दिग्यहंसचिरं रेमे विहरन् स यरच्छया ॥१४॥ परक्षेत्रविहारस्तु नाहमिन्द्रेषु विद्यते । शुक्ललेश्यानुभावेन स्वमोगतिमापुषाम् ॥१४॥ स्वस्थाने या च संप्रीतिः निरपायसुखोदये। न सान्यत्र ततोऽन्येषां नैषां रिसंसा परभक्तिषु ॥१४॥ अहमिन्द्रोऽस्मि नेन्द्रोऽन्यो मत्ताऽस्तीस्यात्त करथनाः । अहमिन्द्राख्यया ख्यातिं गतास्ते हि सुरोत्तमाः॥
नासूया परनिन्दा वा नास्मश्लाघा न मत्सरः । केवलं सुखसाद्भूता दीयन्ते ते प्रमोदिनः ॥१४॥ ऊँची उठी हुई है ऐसी पुण्यकी राशिके समान सुशोभित होता था ॥१३२।। वह अहमिन्द्र, मुकुट, अनन्त, बाजूबन्द और कुण्डल आदि आभूषणांसे सुशोभित था, सुन्दर मालाएँ धारण कर रहा था, उत्तम-उत्तम वस्त्रोंसे युक्त था और स्वयं शोभासे सम्पन्न था इसलिए अनेक आभूषण. माला और वस्त्र आदिको धारण करनेवाले किसी कल्पवृक्षके समान जान पड़ता था ॥१३॥ अणिमा, महिमा आदि गुणोंसे प्रशंसनीय वैक्रियिक शरीरको धारण करनेवाला वह अहमिन्द्र जिनेन्द्रदेवकी अकृत्रिम प्रतिमाओंकी पूजा करता हुआ अपने ही क्षेत्रमें विहार करता था॥१३४॥ और इच्छामात्रसे प्राप्त हुए मनोहर गन्ध, अक्षत आदिके द्वारा विधिपूर्वक पुण्यका बन्ध करनेवाली श्री जिनदेवकी पूजा करता था ।।१३५।। वह अहमिन्द्र पुण्यात्मा जीवोंमें सबसे प्रधान था इसलिए उसी सर्वार्थसिद्धि विमानमें स्थित रहकर ही समस्त लोकके मध्यमें वर्तमान जिनप्रतिमाओंकी पूजा करता था ॥१३६।। उस पुण्यात्मा अहमिन्द्रने अपने वचनोंकी प्रवृत्ति जिनप्रतिमाओंके स्तवन करने में लगायी थी, अपना मन उनके गुण-चिन्तवन करने में लगाया था और अपना शरीर उन्हें नमस्कार करने में लगाया था ॥१३७|| धमेगोष्ठियों में बुलाये सम्मिलित होनेवाले, अपने ही समान ऋद्धियोंको धारण करनेवाले और शुभ भावोंसे युक्त अन्य अहमिन्द्रोंके साथ संभाषण करनेमें उसे बड़ा आदर होता था ॥१३८|| अतिशय । शोभाका धारक वह अहमिन्द्र कभी तो अपने मन्दहास्यके किरणरूपी जलके पूरोंसे दिशारूपी दीवालोंका प्रक्षालन करता हुआ अहमिन्द्रोंके साथ तस्वचर्चा करता था और कभी अपने निवासस्थानके समीपवर्ती उपवनके सरोवरके किनारेकी भूमिमें राजहंस पक्षीके समान अपने इच्छानुसार विहार करता हुआ चिरकाल तक क्रीड़ा करता था ॥१३९-१४०।। अहमिन्द्रोंका परक्षेत्रमें विहार नहीं होता क्योंकि शुक्ललेश्याके प्रभावसे अपने ही भोगों-द्वारा सन्तोषको प्राप्त होनेवाले अहमिन्द्रोंको अपने निरुपद्रव सुखमय स्थानमें जो उत्तम प्रीति होती है वह उन्हें अन्यत्र कहीं नहीं प्राप्त होती । यही कारण है कि उनकी परक्षेत्रमें क्रीड़ा करनेकी इच्छा नहीं होती है ॥१४१-१४२॥ 'मैं ही इन्द्र हूँ, मेरे सिवाय अन्य कोई इन्द्र नहीं है। इस प्रकार वे अपनी निरन्तर प्रशंसा करते रहते है और इसलिए वे उत्तमदेव अहमिन्द्र नामसे प्र प्राप्त होते हैं ।।१४३।। उन अहमिन्द्रके न तो परस्परमें असूया है, न परनिन्दा है, न आत्मप्रशंसा
१. किरीटा-अ० । २. भूषितः । ३. निष्पन्नः । ४. शुभकर्मवताम् । ५. शुभावहैः । 'शुभेच्छुभिः' 'स' पुस्तके टिप्पणे पाठान्तरम् । शुभेषुभिः म०, ल०। ६. स्वक्षेत्रः । ७. संतोष गतवताम् । -मीयुषाम् अ०, ५०, स०, द. । ८. रमणेच्छा । ९. परक्षेत्रेषु । १०. मत् । ११. स्वीकृतश्लाघाः ।
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