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एकादशं पर्व
२३७ धर्मस्वाख्याततां चेति तत्वानुध्यानभावनाः । लेश्याविशुद्धिमधिकां दधानः शुमभावनः ॥१०९॥ द्वितीयवारमारुह्य श्रेणीमुपशमादिकाम् । पृथक्त्वध्यानमापूर्य समाधि परमं श्रितः ॥१०॥ उपशान्तगुणस्थाने कृतप्राणविसर्जनः । सर्वार्थसिद्धिमासाथ संप्रापत् सोऽहमिन्द्रताम् ॥१११॥ द्विषटकयोजनलोकप्रान्तमप्राप्य यस्थितम् । सर्वार्थसिदिनामाग्रय विमानं तदनुत्तरम् ॥११२॥ जम्बूद्वीपसमायामविस्तारपरिमण्डलम् । त्रिषष्टिपटलप्रान्ते चूडारवमिव स्थितम् ॥११३॥ यत्रोत्पबवतामर्थाः सर्वे सिद्धयन्त्ययत्नतः । इति सर्वार्थसिद्धयाख्यां यद्विभर्त्यर्थयोगिनाम् ॥११४॥ महाधिष्ठानमुत्तशिखरोल्लासिकेतनैः । समाइयदिवाभाति यन्मुनीन् सुखदित्सया ॥११५॥ इन्द्रनीलमयीं यत्र भुवं पुष्पोपहारिणीम् । इष्टा तारकितं ज्योम स्मरन्ति त्रिदिवौकसः ॥११६॥ "घुसदां प्रतिबिम्बानि धारयन्त्यश्वकासति । सिसृक्षव इवापूर्व स्वर्ग यन्मणिमित्तयः ॥१७॥ किरणैर्यत्र रत्नानां तमोधूतं विदरतः । पदं न कुरुते सत्यं निर्मला मलिनैः सह ॥११८॥ रखांशुभिर्जटिलितैर्यत्र शक्रशरासनम् । पर्यन्ते लक्ष्यते दीलसाललीलां विडम्बयत् ॥११९॥ मान्ति पुष्पसजो यत्र लम्बमानाः सुगन्धयः । सौमनस्यमिवेन्द्राणां सूचयन्तोऽतिकोमलाः ॥१२०॥ मुक्कामयानि दामानि यत्रामान्ति निरन्तरम् । विस्पष्टदशनांशूनि हसितानीव तच्छियः ॥१२१॥
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प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है और दयारूपी धर्मसे ही जीवोंका कल्याण हो सकता है। इस प्रकार तत्त्वोंका चिन्तन करते हुए उन्होंने बारह भावनाओंको भाया। उस समय शुभ भावोंको धारण करनेवाले वे मुनिराज लेश्याओंकी अतिशय विशुद्धिको धारण कर रहे थे ॥१०५-१०९।।
द्वितीय बार उपशम श्रेणीपर आरूढ हए और पृथक्त्ववितर्क नामक शक्लध्यानको पूर्ण कर उत्कृष्ट समाधिको प्राप्त हुए ॥ ११० ।। अन्तमें उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थानमें प्राण छोड़कर सर्वार्थसिद्धि पहुँचे और वहाँ अहमिन्द्र पदको प्राप्त हुए ॥ १११॥ यह सर्वार्थसिद्धि नामका विमान लोकके अन्त भागसे बारह योजन नीचा है। सबसे अग्रभागमें स्थित और सबसे उत्कृष्ट है ॥११२।। इसकी लम्बाई, चौड़ाई और गोलाई जम्बूद्वीपके बराबर है । यह स्वर्गके तिरेसठ पटलोंके अन्त में चडामणि रत्नके समान स्थित है॥११३।। चूँकि उस विमानमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके सब मनोरथ अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं इसलिए वह सर्वार्थसिद्धि इस सार्थक नामको धारण करता है ।। ११४ ॥ वह विमान बहुत ही ऊँचा है तथा फहराती हुई पताकाओंसे शोभायमान है इसलिए ऐसा जान पड़ता है मानो सुख देनेकी इच्छासे मुनियोंको बुला हो रहा हो ॥११५।। जिसपर अनेक फूल बिखरे हुए हैं ऐसी वहाँकी नीलमणिकी बनी हुई भूमिको देखकर देवता लोगोंको ताराओंसे व्याप्त आकाशका स्मरण हो आता है ॥११६।। देवोंके प्रतिबिम्बको धारण करनेवाली वहाँकी रममयी दीवालें ऐसी जान पड़ती हैं मानो किसी नये स्वर्गको सृष्टि ही करना चाहती हों ॥ ११७ ॥ वहाँपर रमोंकी किरणोंने अन्धकारको दूर भगा दिया है। सो ठीक ही है, वास्तवमें निर्मल पदार्थ मलिन पदार्थोंके साथ संगति नहीं करते हैं ॥११८॥ उस बिमानके चारों ओर रत्नोंकी किरणोंसे जो इन्द्रधनुष बन रहा है उससे ऐसा मालूम होता है मानो चारों ओर चमकीला कोट ही बनाया गया हो ॥ ११९ । वहाँपर लटकती हुई सुगन्धित और सुकोमल फूलोंकी मालाएँ ऐसी सुशोभित होती हैं मानो वहाँके इन्द्रोंके सौमनस्य (फूलोंके बने हुए, उत्तम मन)को ही सूचित कर रही हों ।। १२० ॥ उस विमानमें निरन्तर रूपसे लगी हुई मोतियोंकी मालाएँ ऐसी जान पड़ती हैं मानो दाँतोंकी स्पष्ट
१. तत्त्वानुस्मृतिरूपभावनाः। २. प्रथमशुक्लध्यानं सम्पूर्णीकृत्य । ३. समाधानम् । ४. परिधिः । ५. अर्थयुक्ताम् । ६. दातुमिच्छया । ७. देवानाम् । ८. स्रष्टुमिच्छवः । ९. हसनानि ।