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आदिपुराणम् ततः स्वाभाविकं कर्म क्षयात् तत्रशमादपि । यदाहादनमतत् स्यात् सुखं नान्यज्यपाश्रयम् ॥१८॥ परिवारर्द्धिसामग्रथा सखं स्यात् कल्पवासिनाम् । तदमावेऽहमिन्द्राणां कुतस्त्यमिति चेत् सुखम् ॥१८७॥ परिवारद्धिसत्तेव' किं सुखं किमु तद्वताम् । तत्सेवा सुखमित्येवमत्र स्याद् द्वितयी गतिः ॥१८॥ सान्तःपुरो धनीद्धपरिवारो ज्वरी नृपः । सुखी स्यात् यदि.सन्मात्राद् विषयात् सुखमीप्सितम् ॥१८९॥ तत्सेवासुखमित्यत्र दत्तमवोत्तरं पुरा । सत्सेवी तीब्रमायस्तः कथं वा सुखमाग भवेत् ॥१९॥ पश्यैते विषयाः स्वप्नभोगामा विप्रलम्मकाः । अस्थायुकाः कुतस्तेभ्यः सुखमाधियां नृणाम् ॥१९॥ विषयानर्जयन्नेव तावदुःखं महद् भवेत् । तद्रक्षाचिन्तने भूयो भवेदस्यन्तमासंधीः ॥१९२॥ तद् वियोगे पुनदुःखमपारं परिवर्त्तते । पूर्वानुभूतविषयान् स्मृत्वा स्मृत्वावसीदतः ॥१५॥ 'अनाशितंभवानेतान् विषयान धिगपयायिनः येषामासेवन जन्तोन संतापोपशान्तये ॥१९॥ वतिरिवेन्धनैः सिन्धोः स्रोतोभिरिव सारितैः । न जातु विषयैर्जन्तोरुपभुक्तर्वितृष्णता ॥१९५॥
क्षारमम्बु यथा पीत्वा तृप्यत्यतितरां नरः । तथा विषयसंमोगैः परं संतर्षमृच्छति ॥१९६॥ कारण विषयोंसे आत्माका मोहित हो जाना ही है ॥१८५।। इसलिए कर्मोके क्षयसे अथवा उपशमसे जो स्वाभाविक आह्वाद उत्पन्न होता है वही सुख है । वह सुख अन्य वस्तुओंके आश्रयसे कभी उत्पन्न नहीं हो सकता ॥१८६।। अब कदाचित् यह कहो कि स्वर्गोमें रहनेवाले देवोंको परिवार तथा ऋद्धि आदि सामग्रीसे सुख होता है परन्तु अहमिन्द्रोंके वह सामग्री नहीं है इसलिए उसके अभावमें उन्हें सुख कहाँसे प्राप्त हो सकता है ? तो इस प्रश्नके समाधानमें हम दो प्रश्न उपस्थित करते हैं । वे ये हैं जिनके पास परिवार आदि सामग्री विद्यमान है उन्हें उस सामग्रीकी सत्तामात्रसे सुख होता है अथवा उसके उपभोग करनेसे ? ॥१८७-१८८॥ यदि सामग्रीकी सत्तामात्रसे ही आपको सुख मानना इष्ट है तो उस राजाको भी सुखी होना चाहिए जिसे ज्वर चढ़ा हुआ है और अन्तःपुरकी स्त्रियाँ, धन, ऋद्धि तथा प्रतापी परिवार आदि सामग्री जिसके समीप ही विद्यमान है ॥१८९॥ कदाचित् यह कहो कि सामग्रीके उपभोगसे सुख होता है तो उसका उत्तर पहले दिया जा चुका है कि परिवार आदि सामग्रीका उपभोग करनेवाला, उसकी सेवा करनेवाला पुरुष अत्यन्त श्रम और क्लमको प्राप्त होता है अतः ऐसा पुरुष सुखी कैसे हो सकता है ? ॥१९०।। देखो, ये विषय स्वप्न में प्राप्त हुए भोगोंके समान अस्थायी और धोखा देनेवाले हैं । इसलिए निरन्तर आर्तध्यान रूप रहनेवाले पुरुषोंको उन विषयोंसे सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? भावार्थ-पहले तो विषय-सामग्री इच्छानुसार सबको प्राप्त होती नहीं है इसलिए उसकी प्राप्तिके लिए निरन्तर आर्तध्यान करना पड़ता है और दूसरे प्राप्त होकर स्वप्नमें दिखे हुए भोगोंके समान शीघ्र ही नष्ट हो जाती है इसलिए निरन्तर इष्ट वियोगज आर्तध्यान होता रहता है । इस प्रकार विचार करनेसे मालूम होता है कि विषय-सामग्री सुखका कारण नहीं है ॥१९१॥ प्रथम तो यह जीव विषयोंके इकट्ठे करनेमें बड़े भारी दुःखको प्राप्त होता है और फिर इकट्ठे हो चुकनेपर उनकी रक्षाकी चिन्ता करता हुआ अत्यन्त दुःखी होता है ॥१९२।। तदनन्तर इन विषयोंके नष्ट हो जानेसे अपार दुःख होता है क्योंकि पहले भोगे हुए विपयोंका बार-बार स्मरण करके यह प्राणी बहुत ही दुःखी होता है ।। १९३ ।। जो अतृप्तिकर हैं, विनाशशील हैं और जिनका सेवन जीवोंके सन्तापको दूर नहीं कर सकता ऐसे इन विषयोंको धिकार है। १९४॥ जिस प्रकार इंधनसे अग्निकी तृष्णा नहीं मिटती और नदियोंके पूरसे समुद्रकी तृष्णा दूर नहीं होती उसी प्रकार भोगे हुए विषयोंसे कभी जीवोंकी तृष्णा दूर नहीं होती ।। १९५ ॥ जिस प्रकार
१. अस्तित्वमेव'। २. वञ्चकाः । ३. अस्थिराः । ४. अतृप्तिजनकान् । अनाशितभवान् अ०, ५०, स०। ५. सरित्सम्बन्धिभिः । ६. अभिलापम् ।