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एकादशं पर्व
२३१ कृती कृताभिषेकाय सोऽस्मै 'नार्पत्यमार्पिपत् । नृपैः समं समाशास्य महान् सम्राड् मवेत्यमुम् ॥४५॥ अनन्तरं च लोकान्तिकामरैः प्रतिबोधितः । वज्रसेनमहाराजो न्यधानिष्क्रमणे मतिम् ॥४६॥ यथोचितामपचितिं तन्वरसूत्तमनाकिए । परिनिष्क्रम्य चक्रेऽसौ मुक्तिलक्ष्मी प्रमोदिनीम् ॥४७॥ समं भगवतानेन सहस्रगणनामिताः । महत्थानवनोद्याने नृपाः प्रावाजिषुस्तदा ॥४८॥ राज्यं निष्कण्टकीकृस्य वज्रनामिरपालयत् । भगवानपि योगीन्द्रस्तपश्चके विकल्मषम् ॥४९॥ राज्यलक्ष्मीपरिष्वङ्गाद् वज्रनामिस्तुतोष सः । तपोलक्ष्मोसमासंगाद् गुरुरस्यातिपिप्रिये ॥५०॥ भ्रातृभितिरस्यासीद् वज्रनाभेः समाहितः । गुणस्तु धृतिमातेने योगी श्रेयोऽनुबन्धिभिः ॥५१॥ वज्रनाभिनुपोऽमात्यैः संविधत्ते स्म राजकम् । मुनीन्द्रोऽपि तपोयोगैर्गुणग्राममपोषयत् ॥५२॥ 'निजे राज्याश्रमे पुत्रो गुरुरन्स्याश्रमे स्थितः । परार्थबद्धकक्ष्यौ" तौ पालयामासतुः प्रजाः ॥५३॥ वज्रनाभेर्जयागारे' चक्रं मास्वरमुद्रमौ । योगिनोऽपि मनोगारे ध्यानचक्रं स्फुरद्युतिः ॥५४॥
ततो व्यजेष्ट निश्शेषां महीमेष महीपतिः । मुनिः कर्मजयावाप्तमहिमा जगतीत्रयीम् ॥५५॥ कमर करधनी तथा रेशमी वसकी पट्टीसे शोभायमान हो रही थी ॥४४॥ अत्यन्त कुशल वनसेन महाराजने, जिसका राज्याभिषेक हो चुका है ऐसे वननाभिके लिए 'तू बड़ा भारी चक्रवर्ती हो' इस प्रकार अनेक राजाओंके साथ-साथ आशीर्वाद देकर अपना समस्त राज्यभार सौंप दिया ॥४॥ ... तदनन्तर लौकान्तिक देवोंने आकर महाराज वनसेनको समझाया जिससे प्रबुद्ध होकर उन्होंने दीक्षा धारण करनेमें अपनी बुद्धि लगायी ॥४६॥ जिस समय इन्द्र आदि उत्तम-उत्तम देव भगवान् वनसेनकी यथायोग्य पूजा कर रहे थे उसी समय उन्होंने दीक्षा लेकर मुक्तिरूपी लक्ष्मीको प्रसन्न किया था ॥४७॥ उस समय भगवान् वनसेनके साथ-साथ आम्रवन नामके बड़े भारी उपवनमें एक हजार अन्य राजाओंने भी दीक्षा ली थी।॥४८॥ इधर राजा वज्रनाभि राज्यको निष्कण्टक कर उसका पालन करता था और उधर योगिराज भगवान् वनसेन भी निर्दोष तपस्या करते थे ॥४९।। इधर वजनाभि राज्यलक्ष्मीके समागमसे अतिशय सन्तुष्ट होता था और उधर उसके पिता भगवान् वनसेन भी तपोलक्ष्मीके समागमसे अत्यन्त प्रसन्न होते थे ॥५०॥ इधर वचनाभिको अपने सम्मिलित भाइयोंसे बड़ा धैर्य (सन्तोष ) प्राप्त होता था
और उधर भगवान् वनसेन मुनि कल्याण करनेवाले गुणोंसे धैर्य (सन्तोष) को विस्तृत करते थे ॥५१॥ इधर वजनाभि मंत्रियोंके द्वारा राजाओंके समूहको अपने अनुकूल करता था और उधर मुनीन्द्र वनसेन भी तप और ध्यानके द्वारा गुणोंके समूहका पालन करते थे ॥५२।। इधर पुत्र वचनाभि अपने राज्याश्रममें स्थित था और उधर पिता भगवान् वत्रसेन अन्तिम मुनि आश्रममें स्थित थे । इस प्रकार वे दोनों ही परोपकारके लिए कमर बाँधे हुए थे और दोनों ही प्रजाकी रक्षा करते थे । भावार्थ-वजनामि दुष्ट पुरुषोंका निग्रह और शिष्ट पुरुषोंका अनुग्रह कर प्रजाका पालन करता था और भगवान् वज्रसेन हितका उपदेश देकर प्रजा (जीवों) की रक्षा करते थे ॥५३॥ वजनाभिके आयुधगृहमें देदीप्यमान चक्ररत्न प्रकट हुआ था और मुनिराज वनसेनके मनरूपी गृहमें प्रकाशमान तेजका धारक ध्यानरूपी चक्र प्रकट हुआ था ॥५४॥ राजा वजनाभिने उस चक्ररत्नसे समस्त पृथिवीको जीता था और मुनिराज
१. नृपतित्वम् । २. समाश्वास्य अ०, ५०, द०, म०, । ३. पूजाम् । ४. लौकान्तिकेषु देवेषु । ५. आलिङ्गनात् । ६. संयोगात् । ७. समाधानयुक्तः । ८. अनुकूलं करोति स्म, सम्यगकरोत् । ९. राज्यकम् प०, अ० १०. ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो भिक्षुरिति चतुराश्रमेषु अन्त्ये । ११. कृतसहायो। १२. जीवसमूहश्च । १३. शस्त्रशालायाम् । १४. जगतीत्रयम् ।