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एकादशं पर्व
२३३ उत्कृष्टतपसो धीरान् मुनीन् ध्यायमनेनसः' । एकचों ततो भेजे युक्तः सदर्शनेन सः ॥६६॥ सं एकचरतां प्राप्य चिरं गज इवागजः । मन्थर विजहारोवीं प्रपश्यन् सवनं वनम् ॥६॥ ततोऽसौ भावयामास मावितास्मा सुधीरधीः । स्वगरोनिकटे तीर्थकृत्त्वस्याङ्गानि षोडश ॥६॥ सद्दष्टिं विनयं शीलवतेष्वनतिचारताम् । ज्ञानोपयोगमाभीक्ष्ण्यात् संवेगं चाप्यमावयत् ॥६५॥ यथाशक्ति तपस्तेपे स्वयं वीर्यमहापयन् । स्यागे च मतिमाधत्ते ज्ञानसंयमसाधने ॥७॥ सावधान: समाधाने साधूनां सोऽभवन् मुहुः । समाधये हि सर्वोऽयं परिस्पन्दो हितार्थिनाम् ॥७॥ स वैयावृत्यमातेने व्रतस्थेष्वामयादिषु । "मनात्मतरको भूत्वा तपसो हृदयं हि तत् ॥७२॥ स तेने भक्तिमहस्सु पूजामहसुनिश्चलाम् । प्राचार्यान् प्रश्रयो भेजे मुनीनपि बहुश्रुतान् ॥७३॥ परां प्रवचने भक्तिमा तोपज्ञे ततान सः । न" पारयति रागादीन् विजेतुं "सन्ततानसः ॥७॥ अवश्यम वशोऽप्येष वशी स्वावश्यकं दधौ । षड्भेदं देशकालादिसम्यपेक्षमनूनयन् ॥५॥
मार्ग प्रकाशयामास तपोशानादिदोधितीः । दधानोऽसौ मुनीनेनो भव्याब्जानां प्रबोधकः ॥७६॥ देवोंने कहा है ।।६४-६५।। तदनन्तर उत्कृष्ट तपस्वी, धीर, वीर तथापापरहित मुनियोंका चिन्तवन करनेवाला और सम्यग्दर्शनसे युक्त वह चक्रवर्ती एकचर्याव्रतको प्राप्त हुआ अर्थात् एकाकी विहार करने लगा ॥६६॥ इस प्रकार वह चक्रवर्ती एकचर्याव्रत प्राप्त कर किसी पहाड़ी हाथीके समान तालाब और वनकी शोभा देखता हुआ चिरकाल तक मन्द गतिसे (ईर्यासमितिपूर्वक) पृथिवीपर विहार करता रहा ॥६७। तदनन्तर आत्माके स्वरूपका चिन्तवन करनेवाले धीरवीर वज्रनाभि मुनिराजने अपने पिता वज्रसेन तीर्थकरके निकट उन सोलह भावनाओंका चिन्तवन किया जो कि तीर्थकर पद प्राप्त होने में कारण हैं ॥३८॥ उसने शंकादि दोषरहित शुद्ध सम्यग्दर्शन धारण किया, विनय धारण की, शील और व्रतोंके अतिचार दूर किये, निरन्तर ज्ञानमय उपयोग किया, संसारसे भय प्राप्त किया ॥६९।। अपनी शक्तिको नहीं छिपाकर सामय॑के अनुसार तपश्चरण किया, ज्ञान और संयमके साधनभूत त्यागमें चित्त लगाया ॥७०॥ साधुओंके व्रत, शील आदिमें विघ्न आनेपर उनके दूर करनेमें वह बार-बार सावधान रहता था क्योंकि हितैषी पुरुषोंकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ समाधि अर्थात् दूसरोंके विघ्न दूर करनेके लिए ही होती हैं ।।७।। किसी व्रती पुरुषके रोगादि होनेपर वह उसे अपनेसे अभिन्न मानता हुआ उसका वैयावृत्य (सेवा) करता था क्योंकि वैयावृत्य ही तपका हृदय है-सारभूत तत्त्व है।।७२।। वह पूज्य अरहन्त भगवान्में अपनी निश्चल भक्तिको विस्तृत करता था, विनयी होकर आचार्योंकी भक्ति करता था, तथा अधिक ज्ञानवान् मुनियोंकी भी सेवा करता था ।।७३।। वह सच्चे देवके कहे हुए शास्त्रोंमें भी अपनी उत्कृष्ट भक्ति बढ़ाता रहता था, क्योंकि जो पुरुष प्रवचन भक्ति (शासभक्ति) से रहित होता है वह बढ़े हुए रागादि शत्रुओंको नहीं जीत सकता है ।।७४॥ वह अवश (अपराधीन) होकर भी वश-पराधीन (पझमें जितेन्द्रिय)था और द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षा रखनेवाले, समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यकों का पूर्ण रूपसे पालन करता था॥७॥ तप, ज्ञान आदि किरणोंको धारण करनेवाला और भव्य जीवरूपी कमलोंको विकसित करनेवाला वह मुनिराजरूपी सूर्य सदा जैनमार्गको प्रकाशित
१. अपापान । २-३. एकविहारित्वम् । ४. पर्वतजातः । ५. शनैः। ६. सजलमरण्यम । ७. सातत्यात् । 'अभीक्ष्णं शश्वदनारते' इत्यभिधानान् । ८. अगोपयन् । ९. समाधौ। १०. चेष्टा । ११. अनात्मबञ्चकः । अनात्मान्तरको-द०,ल० । १२. इन्द्रादिकृत-पूजायोग्येषु । १३. निर्मलाम् प०,द०।१४. आप्तेन प्रथमोपक्रमे । १५. समर्थो न भवति । १६. विस्तृतान् । १७. अनाप्तः । स न भवतित्यसः। प्रवचनभक्तिरहित इत्यर्थः । १८. अनिच्छुः । १९. मुनीन्द्रसूर्यः ।
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