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आदिपुराणम् स्पर्द्धमानाविवान्योन्यमित्यास्तां तौ जयोद्धरौ । किन्त्वेकस्य जयोऽत्यल्पः परस्य भुवनातिगः ॥५६॥ धनदेवोऽपि तस्यासीच्चक्रिणो रत्नमूर्जितम् । राज्यानं गृहपत्याख्यं निघौ रत्ने च योजितम् ॥५॥ ततः कृतमतिर्भुक्त्वा चिरं पृथ्वी पृथूदयः । गुरोस्तीर्थकृतोऽबोधि बोधि मत्यन्तदुर्लभाम् ॥५८॥ सष्टिज्ञानचारित्रत्रयं यः सेवते कृती । रसायनमिवातळ सोऽमृतं पदमश्नुते ॥५१॥ इस्याकलव्य मनसा चक्री चक्रे तपोमतिम् । जरत्तणमिवाशेषं साम्राज्यमवमत्य सः ॥६॥ वज्रदन्ताये सूनौ कृतराज्यसमर्पणः । नृपैः स्वमौलिबद्धार्दै स्तुग्मिन दशमिश्शतैः ॥६१॥ समं भ्रातृभिरष्टामिर्धनदेवेन चादधे । दीक्षां मन्यजनोदीक्ष्या मुक्त्यै स्वगुरुसन्निधौ ॥६२॥-- ''तमन्बीयुनूपा जन्मदुःखास्तिपसे वनम् । शीतातः को न कुर्वीत सुधीरातपसेवनम् ॥१३॥ विधा, प्राणिवधान् मिथ्यावादात् स्तेयात् परिग्रहात् । विरतिं श्रीप्रसंगाच स यावज्जीवमग्रहीत ।६।। व्रतस्थः समिती हीरादधेऽसौ सभावनाः । मात्राष्टकमिदं प्राहुः मुनेरिन्द्र समावनाः ॥६५॥
वनसेनने कर्मोंकी विजयसे अनुपम प्रभाव प्राप्त कर तीनों लोकोंको जीत लिया था ॥५५॥ इस प्रकार विजय प्राप्त करनेसे उत्कट (श्रेष्ठ) वे दोनों ही पिता-पुत्र परस्पर स्पर्धा करते हुएसे जान पड़ते थे। किन्तु एक ( वजनाभि ) की विजय अत्यन्त अल्प थी-छह खण्ड तक सीमित थी और दूसरे (वनसेन ) की विजय संसार-भरको अतिक्रान्त करनेवाली थीसबसे महान थी ॥५६॥ धनदेव (श्रीमती और केशवका जीव) भी उस चक्रवर्तीकी निधियों
और रत्नोंमें शामिल होनेवाला तथा राज्यका अङ्गभूत गृहपति नामका तेजस्वी रत्न हुआ ॥५७॥ इस प्रकार उस बुद्धिमान और विशाल अभ्युदयके धारक वचनाभि चक्रवर्तीने चिरकाल तक पृथ्वीका उपभोग कर किसी दिन अपने पिता वअसेन तीर्थकरसे अत्यन्त दुर्लभ रत्नत्रयका स्वरूप जाना ॥५८।। जो चतुर पुरुष रसायनके समान सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनोंका सेवन करता है वह अचिन्त्य और अविनाशी मोक्षरूपी पदको प्राप्त होता है ॥५९|| हृदयसे ऐसा विचार कर उस चक्रवर्तीने अपने सम्पूर्ण साम्राज्यको जीर्ण तृणके समान माना और तप धारण करनेमें बुद्धि लगायी ॥६०॥ उसने वदन्त नामके अपने पुत्रके लिए राज्य समर्पण कर सोलह हजार मुकुटबद्ध राजाओं, एक हजार पुत्रों, आठ भाइयों और धनदेवके साथ-साथ मोक्ष प्राप्तिके उद्देश्यसे पिता वनसेन तीर्थकरके समीप भव्य जीवोंके द्वारा आदर करने योग्य जिनदीक्षा धारण की ॥६१-६२।। जन्म-मरणके दुःखोंसे दुःखी हुए अन्य अनेक राजा तप करनेके लिए उसके साथ वनको गये थे सो ठीक ही है, शीतसे पीड़ित हुआ कौन बुद्धिमान धूपका सेवन नहीं करेगा ?॥६३।। महाराज वजनाभिने दीक्षित होकर जीवन पर्यन्तके लिए मन, वचन, कायसे हिंसा, झूठ, चोरी, स्त्री-सेवन
और परिग्रहसे विरति धारण की थी अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँचों महाव्रत धारण किये थे ॥६४॥ व्रतोंमें स्थिर होकर उसने पाँच महाव्रतोंकी पचीस भावनाओं, पाँच समितियों और तीन गुप्तियोंको भी धारण किया था। ईर्या, भाषा, एषणा, आदान, निक्षेपण और प्रतिष्ठापन ये पाँच समितियाँ तथा कायगुप्ति, वचनगुप्ति और मनोगुप्ति ये तीन गुप्तियाँ दोनों मिलाकर आठ प्रवचनमातृकाएँ कहलाती हैं। प्रत्येक मुनिको इनका पालन अवश्य ही करना चाहिए ऐसा इन्द्रसभा (समवसरण) की रक्षा करनेवाले गणधरादि
१. उत्तप्तौ । २. सम्पूर्णबुद्धिः। ३. तीर्थकरस्य । ४. रत्नत्रयम् । ५. अचिन्त्यम् । ६. विचार्य । ७. अवशां कृत्वा । ८. षोडशसहस्रः । ९. पुत्रैः। १०. अभिलषणीयाम् । जनोदीक्षां ब०, स.। ११. तेन सह गताः । 'टाऽर्थेऽनुना' । १२. मनोवाक्कायेन । १३. प्रवचनमात्रकाष्टकम् । १४. गणघरादयः ।