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एकादशं पर्व
हारेण कण्ठपर्यन्तवर्त्तिनासौ श्रियं दधे । मृणालवलयेनेव लक्ष्म्यालिङ्गनसंगिना ॥२२॥ वक्षोऽस्य पद्मरागांशुच्छुरितं रुचिमानशे । सान्द्रबालातपच्छवसानोः कनकशृङ्गिणः ॥ २३॥ वक्षःस्थलस्य पर्यन्ते तस्यांसौ रुचिमापतुः । लक्ष्म्याः क्रीडार्थमुसुङ्गौ क्रीडाद्री घटिताविव ॥ २४ ॥ वक्षोभवनपर्यन्ते तोरणस्तम्भविभ्रमम् । बाहू दधतुरस्योबेहरतोरणधारिणौ ॥ २५ ॥
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"वज्राङ्गबन्धनस्यास्य मध्येनामि समैक्ष्यत । वज्र लान्छनमुद्भूतं वर्त्यत्साम्राज्य लान्छनम् ॥२६॥ लसद्दुकूलपुलिनं रतिहंसीनिषेवितम् । परां श्रिय मधादस्य कटिस्थानसरोवरम् ॥२७॥ सुवृत्तमसृणाबूरू तस्य कान्तिमवापताम् । सञ्चरत्कामगन्धेभरोधे क्लृप्ताविवालौ ॥ २८ ॥ जानु गुल्फ स्पृशौ जङ्घे तस्य शिश्रियतुः श्रियम् । सन्धिमेव युवां धत्तंमित्यादेष्टुमिवोद्यते ॥२९॥ कान्तिश्रितावस्य पादावङ्गलिपत्रकौ । सिषेवे सुचिरं लक्ष्मीर्नखेन्दुयुतिकेसरौ ॥३०॥ इति लक्ष्मीपरिष्वङ्गाद' 'स्याति रुचिरं वपुः । नूनं सुराङ्गनानां च कुर्यात् स्वे' स्पृहयालुताम् ॥३१॥ तथापि यौवनारम्भे मदनज्वर कोपिनि । नास्याजनि मदः कोऽपि स्वभ्यस्त श्रुतसंपदः ॥३२॥ सोते स्म त्रिवर्गार्थसाधनीर्विपुलोदयाः । समन्त्रा राजविद्यास्ता लक्ष्म्याकर्षविधौ क्षमाः ॥३३॥
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मालूम होती थी मानो अपने-अपने क्षेत्रका उल्लंघन न करनेके लिए ब्रह्माने उनके बीच में सीमा ही बना दी हो ॥ २१ ॥ गलेके समीप पड़े हुए हारसे वह ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो वक्षःस्थलवासिनी लक्ष्मीका आलिंगन करनेवाले मृणालवलय ( गोल कमलनाल ) से ही -शोभायमान हो रहा हो ।। २२ ।। पद्मरागमणियोंकी किरणोंसे व्याप्त हुआ उसका वक्षःस्थल ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो उदय होते हुए सूर्यकी लाल-लाल सघन प्रभासे आच्छादित हुआ मेरु पर्वतका तट ही हो ||२३|| वक्षःस्थलके दोनों ओर उसके ऊँचे कन्धे ऐसे जान पड़ते थे मानो लक्ष्मीकी क्रीड़ाके लिए अतिशय ऊँचे दो क्रीड़ा पर्वत ही बनाये गये हों ||२४|| हाररूपी तोरणको धारण करनेवाली उसकी दोनों भुजाएँ वक्षःस्थलरूपी महलके दोनों ओर खड़े किये गये तोरण बाँधनेके खम्भोंका सन्देह पैदा कर रही थीं ||२५|| जिसके शरीरका संगठन वज्र के समान मजबूत है ऐसे उस वज्रनाभिकी नाभिके बीच में एक अत्यन्त स्पष्ट वा चिह्न दिखाई देता था जो कि आगामी कालमें होनेवाले साम्राज्य (चक्रवर्तित्व) का मानो चिह्न ही था ।। २६ ।। जो रेशमी वस्त्ररूपी तटसे शोभायमान था और रतिरूपी हंसीसे सेवित था ऐसा उसका कटिप्रदेश किसी सरोवर की शोभा धारण कर रहा था ।। २७ ।। उसके अतिशय गोल और चिकने ऊरु, यहाँ-वहाँ फिरनेवाले कामदेवरूपी हस्तीको रोकनेके लिए बनाये गये अर्गलदण्डोंके समान शोभाको प्राप्त हो रहे थे ॥ २८ ॥ घुटनों और पैरके ऊपरकी गाँठोंसे मिली हुई उसकी दोनों जङ्घाएँ ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो लोगोंको यह उपदेश देने के लिए ही उद्यत हुई हों कि हमारे समान तुम लोग भी सन्धि (मेल) धारण करो ||२९|| अँगुलीरूपी पत्तों से सहित और नखरूपी चन्द्रमाकी कान्तिरूपी केशरसे युक्त उसके दोनों चरण, कमलकी शोभा धारण कर रहे थे और इसीलिए लक्ष्मी चिरकालसे उनकी सेवा करती थी ||३०|| इस प्रकार - लक्ष्मीका आलिंगन करनेसे अतिशय सुन्दरताको प्राप्त हुआ उसका शरीर अपने में देवाङ्गनाओंकी भी रुचि उत्पन्न करता था - देवाङ्गनाएँ भी उसे देखकर कामातुर हो जाती थीं ||३१|| उसने शास्त्ररूपी सम्पत्तिका अच्छी तरह अभ्यास किया था इसलिए कामज्वरका प्रकोप बढ़ानेवाले यौवनके प्रारम्भ समय में भी उसे कोई मद उत्पन्न नहीं हुआ था ||३२|| जो
१. मिश्रितम् । २. वज्रशरीरबन्धनस्य । ३. नाभिमध्ये । ४. रतिरूपमराली । ५. परश्रिय - द०, म०, ल० । ६. - श्रियमगाद - अ०, स० । ७. ऊरूपर्व । ८. गुल्फः घुण्टिका । ९. बिभूतम् । १०. आलिङ्गनात् । ११. आरपनि ।