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एकादशं पर्व
स्फुरन्ति यस्य वाक्पूजा' प्राप्स्युपायगुणांशवः । स वः पुनातु मन्याब्जवनबोधी जिनांशुमान् ॥ १ ॥ अथ तस्मिन् दिवं मुक्त्वा भुवमेष्यति तत्तनौ । म्लानिमायात् किलाम्लानपूर्वा' मन्दारमालिका ॥२॥ स्वर्ग प्रतिलिङ्गानि यथान्येषां सुधाशिनाम् । स्पष्टानि न तथेन्द्राणां किं तु लेशेन केनचित् ॥३॥ ततोऽबोधि सुरेन्द्रोऽसौ स्वर्गं प्रच्युतिमात्मनः । तथापि न व्यसीदत् स तद्धि धैर्यं महात्मनाम् ॥४॥ षण्मासशेषमात्रायुः सपर्यामर्हतामसौ । प्रारेभे पुण्यधीः कर्तुं प्रायः श्रेयोऽर्थिनो बुधाः ॥ ५ ॥ स नः प्रणिधायान्ते पदेषु परमेष्ठिनाम् । निष्ठितायुरभूत् पुण्यैः परिशिष्टैरधिष्ठितः ॥ ६ ॥ तथापि सुखसाद्भूता महाधैर्या महर्द्धसः । प्रच्यवन्ते दिवो देवा 'धिगेनां संसृतिस्थितिम् ॥७॥ ततोऽच्युतेन्द्रः प्रच्युत्य जम्बूद्वीपे महायुतौ । "प्राग्विदेहाश्रिते देशे पुष्कलावस्यमिष्टवे" ॥८॥
* स्तोत्रों द्वारा की हुई पूजा ही जिनकी प्राप्तिका उपाय है ऐसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आदि अनेक गुणरूपी जिसकी किरणें प्रकाशमान हो रही हैं और जो भव्य जीवरूपी कमलोंके वनको विकसित करनेवाला है ऐसा वह जिनेन्द्ररूपी सूर्य तुम सब श्रोताओंको पवित्र करे ||१||
अनन्तर जब वह अच्युतेन्द्र स्वर्ग छोड़कर पृथिवीपर आनेके सम्मुख हुआ तब उसके शरीरपर पड़ी हुई कल्पवृक्षके पुष्पोंकी माला अचानक मुरझा गयी। वह माला इससे पहले कभी नहीं मुरझायी थी ||२|| स्वर्ग से च्युत होनेके चिह्न जैसे अन्य साधारण देवोंके स्पष्ट प्रकट होते हैं वैसे इन्द्रोंके नहीं होते किन्तु कुछ-कुछ ही प्रकट होते हैं ||३|| माला मुरझानेसे यद्यपि इन्द्रको मालूम हो गया था कि अब मैं स्वर्गसे च्युत होनेवाला हूँ तथापि वह कुछ भी दुःखी नहीं हुआ सो ठीक है । वास्तव में महापुरुषों का ऐसा ही धैर्य होता है ||४|| जब उसकी आयु मात्र छह माहकी बाकी रह गयी तब उस पवित्र बुद्धिके धारक अच्युतेन्द्रने अर्हन्तदेव की पूजा करना प्रारम्भ कर दिया सो ठीक ही है, प्रायः पण्डितजन आत्मकल्याणके अभिलाषी हुआ ही करते हैं ||५|| आयुके अन्त समय में उसने अपना चित्त पचपरमेष्ठियोंके चरणोंमें लगाया और उपभोग करनेसे बाकी बचे हुए पुण्यकर्मसे अधिष्ठित होकर वहाँकी आयु समाप्त की ||६|| यद्यपि स्वर्गोंके देव सदा सुखके अधीन रहते हैं, महाधैर्यवान् और बड़ी-बड़ी ऋद्धियोंके धारक होते हैं तथापि वे स्वर्ग से च्युत हो जाते हैं इसलिए संसारकी इस स्थितिको धिक्कार हो ॥७॥
तत्पश्चात् वह अच्युतेन्द्र स्वर्ग से च्युत होकर महाकान्तिमान् जम्बूद्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्रमें
१. प्राप्तिः अनन्तचतुष्टयस्य प्राप्तिरित्यर्थः । अपायः घातिकर्मणां वियोग:, अपाय इति यावत् । अपायप्राप्तिः । वाक्पूजा - विहारस्यायिका तनू प्रवृत्तय इति ख्याता जिनस्यातिशया इमे । २. प्राप्त्यपायगुणांशवः ८० । ३. आगमिष्यति सति । ४. पूर्वस्मिन्नम्लाना । ५. कानिचित् अ०, प०, स० द० । ६. न दुःख्यभूत् । ७. एकाप्रीकृत्य । ८. नाशितायुः । ९. बिगिमां प० अ०, स० । १०. पूर्वः । ११. अभिष्टव: स्तवनं यस्य ।
* एक अर्थ यह भी होता है कि 'वचनों में प्रतिष्ठा करानेके कारणभूत गुणरूप किरणें जिसके प्रकाशमान हो रही हैं।' इसके सिवाय 'ट' नामकी टिप्पणप्रतिमें 'वाक्पूजाप्राप्त्यपायगुणांशवः' ऐसा पाठ स्वीकृत किया गया है, जिसका उसी टिप्पणके आधारपर यह अर्थ होता है कि दिव्यध्वनि, अनन्तचतुष्टयकी प्राप्ति और घातिचतुष्कका क्षय आदि गुण ही - अतिशय ही जिसकी किरणें हैं।