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आदिपुराणम्
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भोजनाङ्गा वराहारानमृतस्वाददायिनः । वपुष्करान् फलन्त्या सवसानशनादिकान् ॥४५॥ अशनं पानकं खाद्यं स्वाद्यं चान्नं चतुर्विधम् । कट्टुम्कतिक्तमधुरकषायलवता रसाः ॥४६॥ स्थानि चषका' शुक्ति भृङ्गारकरकादिकान् । भाजनाङ्गा दिशन्स्याविर्मवच्छाखाविषङ्गिणः ।।४७|| चीनपट्टदुकूखानिं प्रावारपरिधानकम्" । मृदुश्लक्ष्णमहार्षाणि वस्त्राङ्गा दवति ब्र॒माः ॥४८॥ न वनस्पतयोऽप्येते नैव "दिब्यैरधिष्ठिताः । केवलं पृथिवीसारा 'स्तन्मयस्वमुपागताः ॥४९॥ अनादिनिधनाश्चैते निसर्गात् फलदायिनः । नहि "मावस्वमावानामुपालम्मः" सुसङ्गतः १६ नृणां दानफलादेवे फळन्ति विपुलं फलम् । “यथान्यपादपाः काले प्राणिनामुपकारकाः ॥ ५१ ॥ सर्वरत्नमयं यत्र धरणीतलमुज्ज्वलैः । प्रसूनैः सोपहारत्वात् मुच्यते जातु न श्रिया ॥ ५२ ॥ यत्र तृण्या" महीपृष्ठं चतुरगुरुसंमिता । शुकच्छायां शुकेनेव प्रच्छादयति हारिबी ॥ ५३॥ मृगाचरन्ति यत्रत्याः" कोमलास्तृणसंपदः । स्वाद्वीर्मृदयसीहृद्या रसायनरसास्थया ॥५४॥
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रहते हैं ||४४|| भोजनांग जातिके वृक्ष, अमृत के समान स्वाद देनेवाले, शरीरको पुष्ट करनेवाले और छहों रससहित अशन-पान आदि उत्तम उत्तम आहार उत्पन्न करते हैं ॥४५॥ अशन (रोटी, दाल, भात आदि खाने के पदार्थ), पानक (दूध, पानी आदि पीनेके पदार्थ), खाद्य (लड्डू आदि खाने योग्य पदार्थ) और स्वाद्य (पान, सुपारी, जावित्री आदि स्वाद लेने योग्य पदार्थ) ये चार प्रकारके आहार और कड़वा, खट्टा, चरपरा, मीठा, कसैला और खारा ये छह प्रकारके रस हैं ||४६ ॥ भाजनांग जातिके वृक्ष थाली, कटोरा, सीपके आकारके बरतन, भृंगार और करक (करवा) आदि अनेक प्रकारके बरतन देते हैं। ये बरतन इन वृक्षोंकी शाखाओंमें लटकते रहते हैं ||४७|| और वस्त्रांग जातिके वृक्ष रेशमी वस्त्र, दुपट्टे और धोती आदि अनेक प्रकारके कोमल, चिकने और महामूल्य वस्त्र धारण करते हैं ||४८|| ये कल्पवृक्ष न तो वनस्पतिकायिक हैं और न देवोंके द्वारा अधिष्ठित ही हैं । केवल, वृक्ष के आकार परिणत हुआ पृथ्वीका सार ही हैं. ||४९ || ये सभी वृक्ष अनादिनिधन हैं और स्वभावसे ही फल देनेवाले हैं। इन वृक्षोंका यह ऐसा स्वभाव ही है इसलिए 'ये वृक्ष वस्त्र तथा बरतन आदि कैसे देते होंगे, इस प्रकार कुतर्क कर इनके स्वभावमें दूषण लगाना उचित नहीं है । भावार्थ- पदार्थोंके स्वभाव अनेक • प्रकारके होते हैं इसलिए उनमें तर्क करनेकी आवश्यकता नहीं है जैसा कि कहा भी है, 'स्वभावोऽतर्कगोचरः' अर्थात् स्वभाव तर्कका विषय नहीं है ||५०|| जिस प्रकार आजकलके अन्य वृक्ष अपने-अपने फलनेका समय आनेपर अनेक प्रकारके फल देकर प्राणियोंका उपकार करते हैं उसी प्रकार उपर्युक्त कल्पवृक्ष भी मनुष्योंके दानके फलसे अनेक प्रकार के फल फलते हुए वहाँके प्राणियोंका उपकार करते हैं ॥५१॥ जहाँकी पृथ्वी सब प्रकार के रत्नोंसे • बनी हुई है और उसपर उज्ज्वल फूलोंका उपहार पड़ा रहता है इसलिए उसे शोभा कभी छोड़ती ही नहीं है ॥५२॥ जहाँकी भूमिपर हमेशा चार अंगुल प्रमाण मनोहर घास लहलहाती रहती है जिससे ऐसा मालूम होता है कि मानो हरे रंगके वस्त्रसे भूपृष्ठको ढक रही हो अर्थात् जमीनपर हरे रंगका कपड़ा बिछा हो ॥ ५३ ॥ जहाँके पशु
१. पुष्टिकरान् । २. चान्वश्चतुविधम् प०, स० म० । वाथ चतुविधम् अ० । ३. कट्वाम्ल -म०, ल० ४. - भोजनभाजनानि । ५. पानपात्र । ६. शुक्ती प० । शुक्तीन् अ०, स० द० । ७ संसक्तान् । ८. उत्तरीयवस्त्र । ९. अघोंशुक । १०. महामूल्यानि । ११. देव-म०, ल० । १२. स्थापिताः । १३. पृथिवीसारस्तम्मयत्व - ब०, अ०, प०, म०, स० द०, ल० । १४. -मुपागतः अ० अ०, प०, स० द० । १५. पदार्थ । १६. दूषणम् । १७. मनोज्ञः । १८. यथाद्य अ०, प०, स०, ६० । १९. वनसंहतिः । २० भक्षयन्ति । २१ यत्र भवाः । तत्रत्याः अ०, स० । २२. अतिशयेन रुच्या । २३. अमृत रसबुद्धधा ।