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दशमं पर्व अथान्येचुरखुदासौ' प्रयुक्तावविरजसा । स्वगुरुं प्रासकैवल्यं श्रीप्रमाद्रिमधिष्ठितम् ॥१॥ जगप्रीतिकरो योऽस्म गुरुः प्रोविकराइयः । समर्षितुममीयाय वर्यया ससपर्यया ॥२॥ श्रीप्रमाद्रौ तमभ्ययं सर्वज्ञममिवन्य च । अस्या धर्म ततोऽपृच्छदित्यसौ स्वमनीषितम् ॥३॥ महाबलमवे येऽस्मन्मन्त्रिणो दुईशस्त्रयः । काय ते लग्धजम्मानः कीरशी वा गतिं श्रिताः ॥४॥ इति पृष्टवते तस्मै सोऽवोचत् सर्वमाववित् । तन्मनोभ्वान्तसंतानमपाकुर्वन्-बचोंशामिः ॥५॥ स्वयि स्वर्गगतेऽस्मासु लन्धबोधिषु ते तदा । प्रपच दुर्मति याता वियाता वत दुर्गतिम् ॥६॥ वो निगोतास्पदं यातौ तमोऽन्धं यत्र केवलम् । तताधिनयणोद्वत्तमूयिष्ठर्जन्ममृत्युमिः ॥७॥ "गतं [तः] शतमतिः श्वनं मिथ्यात्वपरिपाकतः । विपाकक्षेत्रमाम्नातं" तद्धि दुष्कृतकर्मणाम् ॥८॥ मिथ्यात्वविषसंसुप्ता ये'मार्गपरिपन्थिनः । ते यान्ति दीर्घमध्वानं कुयोन्यावर्तसंकुलम् ॥९॥ तमस्यन्धे निमजन्ति "सज्ज्ञानद्वेषिणो नराः । आतोपज्ञमतो"ज्ञानं बुधोऽभ्यस्येदनारतम् ॥१०॥
अथानन्तर किसी एक दिन श्रीधरदेवको अवधिज्ञानका प्रयोग करनेपर यथार्थ रूपसे मालूम हुआ कि हमारे गुरु श्रीप्रभ पर्वतपर विराजमान हैं और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ है ॥११॥ संसारके समस्त प्राणियोंके साथ प्रीति करनेवाले जोप्रीतिकर मुनिराज थे वे ही इसके गुरु थे। इन्हींकी पूजा करनेके लिए अच्छी-अच्छी सामग्री लेकर श्रीधरदेव उनके सम्मुख गया ।।२।। जाते हो उसने श्रीप्रभ पर्वतपर विद्यमान सर्वज्ञप्रीतिंकर महाराजकी पूजा की, उन्हें नमस्कार किया, धर्मका स्वरूप सुना और फिर नीचे लिखे अनुसार अपने मनकी बात पूछी ॥शा हे प्रभो, मेरे महाबल भवमें जो मेरे तीन मिथ्यादृष्टि मन्त्री थे वे इस समय कहाँ उत्पन्न हुए हैं, वे कौन-सी गतिको प्राप्त हुए हैं ? ॥४॥ इस प्रकार पूछनेवाले श्रीधरदेवसे सर्वज्ञदेव, अपने वचनरूपी किरणोंके द्वारा उसके हृदयगत समस्त अज्ञानान्धकारको नष्ट करते हुए कहने लगे ॥५॥ कि हे भव्य, जब तू महाबलका शरीर छोड़कर स्वर्ग चला गया और मैंने रत्नत्रयको प्राप्त कर दीक्षा धारण कर ली तब खेद है कि वे तीनों ढीठ मन्त्री कुमरणसे मरकर दुर्गतिको प्राप्त हुए थे ॥६॥ उन तीनोंमें-से महामति और संमिन्नमति ये दो तो उस निगोद स्थानको प्राप्त हुए हैं जहाँ मात्र सघन अज्ञानान्धकारका ही अधिकार है और जहाँ अत्यन्त तप्त खौलते हुए जलमें उठनेवाली खलबलाहटके समान अनेक बार जन्म-मरण होते रहते हैं ॥७॥ तथाशतमति मन्त्री अपने मिथ्यात्वके कारण नरक गति गया है। यथाथमें खोटे कोंका फल भोगनेके लिए नरक ही मुख्य क्षेत्र है ॥८॥ जो जीव मिथ्यात्वरूपी विषसे मूच्छित होकर समीचीन जैन मार्गका विरोध करते हैं वे कुयोनिरूपी भँवरोंसे व्याप्त इस संसाररूपी मार्गमें दीर्घकाल तक घूमते रहते हैं ॥९॥ चूँकि सम्यग्ज्ञानके विरोधी जीव अवश्य ही नरकरूपी गाढ़ अन्धकारमें
१.-ज्येयुः प्राबुद्धासो अ०।-प्रबुद्धासौ स०। २. झटिति । ३. जगत्प्रीतिकरो स०। ४. श्रीधरस्य । ५. अभिमुखमगच्छत् । ६. स्वर्गे गते अ०, १०, स०। ७.याता वत बुद्धचापि दुर्गतिम् अ०, स० । वियाता घृष्टाः । ८. निगोदास्पदं द०, म०, स० । ९. निकृष्टपीडाश्रयलेपप्रचुरैः । तप्तादिश्रय-म०, ल०। १०. गतः शत-10, अ०, ५०, स०, द०, म०, ल०। ११. कथितम् । १२. सन्मार्गविरोधिनः । १३. कालम् । 'अध्या बलनि संस्थाने सास्रवस्कन्धकालयोः' इत्यभिधानात् । १४. सतां ज्ञानम् । संज्ञान-द०, स०, ०,१०। १५. अतः कारणात् ।