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आदिपुराणम्
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विषारण्यमिदं विश्वग विषवल्लीमिराततम् । असिपत्रवनं चेदमसिपत्रैर्भयानकम् ॥१९॥ 'मृषामिसारिकाश्चेमा स्ततायोमयपुत्रिकाः । काममुदीपयन्त्यस्मानालिजन्त्यो बलाद् गले ॥७॥ योधयन्ति बलादस्मानिमे केऽपि महत्तराः । ननं प्रेताधिनाथेन प्रयुक्ताः कर्मसाक्षिणः ॥७॥ खरारटितमुस्प्रोथं ज्वलज्ज्वालाकरालितम् । "गिलितुमनकोद्गारि "खरोष्ट्रं नोऽमिधावति ॥४२॥ अमी च भीषणाकाराः कृपाणोयतपाणयः । पुरुषास्तर्जयन्स्यस्मानकारणरणोखराः ॥७३॥ इमे च परुषापाता गृध्रा नोऽमि द्रवस्थरम् । "मषन्तः सारमेयाश्च भीषयन्तेतरामिमे ॥७॥ ''नूनमेतन्निमें नास्मदुरितान्येव निर्दयम् । पीआमुत्पादयन्त्येवमहो म्यसनसन्निधिः पा इतः "स्वरति पदोषो नारकाणां प्रधावताम् । इतश्च करुणाक्रन्दगर्मः पूत्कारनिःस्वनः ।।७।। इतोऽयं प्रध्वनद्ध्वाक्ष कठोरारावमूछितः। शिवानामशि वाध्वानः प्रध्यानयति रोदसी ॥७॥ इतः परुषसंपातपवनाधूननोस्थितः । प्रसिपत्रवने पत्रनिर्मोक्षपरुषध्वनिः ॥७८॥ सोऽयं कण्टकितस्कन्धः कूटशाल्मलिपादपः । यस्मिन् स्मृतेऽपि नोऽङ्गानि तुरन्त इव कण्टकैः ॥७९॥
और ये मेघ तप्तधूलिकी वर्षा कर रहे हैं ॥ ६८ ॥ यह विषवन है जो कि सब ओरसे विष लताओंसे व्याप्त है और यह तलवारकी धारके समान पैने पत्तोंसे भयंकर असिपत्र वन है ॥६९।। ये गरम की हुई लोहेकी पुतलियाँ नीच व्यभिचारिणी स्त्रियोंके समान जबरदस्ती गलेका आलिंगन करती हुई हम लोगोंको अतिशय सन्ताप देती हैं (पक्षमें कामोत्तेजन करती हैं)॥७॥ ये कोई महाबलवान पुरुष हम लोगोंको जबरदस्ती लड़ा रहे हैं और ऐसे मालूम होते हैं मानो हमारे पूर्वजन्मसम्बन्धी दुष्कर्मोंकी साक्षी देनेके लिए यमराजके द्वारा ही भेजे गये हों ॥७१॥ जिनके शब्द बड़े ही भयानक हैं, जो अपनी नासिका ऊपरको उठाये हुए हैं, जो जलती हुई ज्वालाओंसे भयंकर हैं और जो मुंहसे अग्नि उगल रहे हैं ऐसे ऊँट और गधोंका यह समूह हम लोगोंको निगलनेके लिए ही सामने दौड़ा आ रहा है ॥७२॥ जिनका आकार अत्यन्त भयानक है जिन्होंने अपने हाथमें तलवार उठा रखी है और जो बिना कारण ही लड़नेके लिए तैयार हैं, ऐसे ये पुरुष हम लोगोंकी तर्जना कर रहे हैं हम लोगोंको घुड़क रहे हैंडाँट दिखला रहे हैं ॥ ७३ ॥ भयंकर रूपसे आकाशसे पड़ते हुए ये गीध शीघ्र ही हमारे सामने झपट रहे हैं और ये भोंकते हुए कुत्ते हमें अतिशय भयभीत कर रहे हैं ॥७४॥ निश्चय ही इन दुष्ट जीवोंके छलसे हमारे पूर्वभवके पाप ही हमें इस प्रकार दुःख उत्पन्न कर रहे हैं। बड़े आश्चर्यकी बात है कि हम लोगोंको सब ओरसे दुःखोंने घेर रखा है ।।७५।। इधर यह दौड़ते हुए नारकियोंके पैरोंकी आवाज सन्ताप उत्पन्न कर रही है और इधर यह करुण विलापसे भरा हुआ किसीके रोनेका शब्द आ रहा है । ७६ ॥ इधर यह काँव-काँव करते हुए कौवोंके कठोर शब्दसे विस्तारको प्राप्त हुआ शृगालोंका अमंगलकारी शब्द आकाशपातालको शब्दायमान कर रहा है ।। ७७॥ इधर यह असिपत्र वनमें कठिन रूपसे चलनेवाले वायुक प्रकम्पनसे उत्पन्न हुआ शब्द तथा उस वायुके आघातसे गिरते हुए पत्तांका कठोर शब्द हो रहा है ॥७८॥ जिसके स्कन्ध भागपर काँटे लगे हुए हैं ऐसा यह वही कृत्रिम सेमरका पेड़
१. भयंकरम् । २. मिथ्यागणिका । ३. -श्चता-म०, ल० । ४. अत्यर्थम् । ५. असुराः । ६. यमेन । ७. कृताध्यक्षाः । ८. कटुरवं भवति तथा । ९. नासिका । १०. चवितुम् । ‘ग निगरणे' धातोस्तुमुन् प्रत्ययः । ११. गर्दभोष्ट्रसमूहः । १२. दाविष्टाः । १३. अभिमुखमागच्छन्ति । १४. तर्जयन्तः । १५. संत्रासयन्ति । १६. अहमेवं मन्ये । १७. व्याजेन । १८. समीपः। १९. स्फुरति अ०,५०, स०। स्वरति 'बोस्व शब्दोपतानयोः । २०. पादरवः। २१. प्रवनद्ध्वाक्षः अ०, स०, ल.। ध्वाङ्क्षः वायसः। २२. मिश्रितः । २३. शृगालानाम् । २४. अमङ्गल । २५. आकाशभूमी।