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आदिपुराणम्
जघनाभोगमामुक्त कटिसूत्रमसौ दथे । मेहनितम्बमालम्बिसन्नचापामुदं यथा ॥१३६॥ सोऽभात् कनकराजीवकिलक्कपरिपिजरौ । अरू जगद्गृहोदप्रतोरणस्तम्भसम्निमौ ॥१३७॥ जाइयं च सुश्लिष्टं नृणां चित्तस्य रजकम् । साकारं व्यजेष्टास्थ सुकवेः काम्यबन्धनम् ॥१३॥ तक्रमाज मृदुस्पर्श लक्ष्मी संवाहनोचितम् । शोणिमानं दधे लग्नमिव तस्करपल्लवात् ॥१३९॥ इत्याविष्कृतरूपेण हारिणा चारुलक्ष्मणा । मनांसि जगतां जहे स बालाद् बालकोऽपि सत् ॥१५॥ स तथा यौबनारम्भे मदनोत्को चकारिणी । वशी युवजरबासीदरिषवर्गनिग्रहात् ॥१४॥ सोऽनुमने यथाकालं सत्कलनपरिग्रहम् । उपरोधाद गुरोः प्रातराज्यलक्ष्मीपरिन्छः ॥१२॥ चक्रिणोऽसयघोषस्य स्वस्त्रीयोऽयं यतो युवा । ततश्रक्रिसुतानेन परिणिन्ये मनोरमा ॥१३॥ तयानुकूलया सत्या"स रेमे सुचिरं नृपः । सुशीलमनुकूलं च कलत्रं रमयेरम् ॥१४॥
तयोरस्यन्तसंप्रीत्या काले गग्छत्यनन्तरम् । स्वयंप्रमो दिवश्च्युस्वा केशवाख्यः सुतोऽजनि ॥१४५॥ कृश है उसी प्रकार उसका मध्य भाग भी कुश था और जिस प्रकार खोकके मध्य भागसे ऊपर
और नीचेका हिस्सा विस्तीर्ण होता है उसी प्रकार उसके मध्य भागसे ऊपर नीचेका हिस्सा भी विस्तीर्ण था ॥१३५।। जिस प्रकार मेरु पर्वत इन्द्रधनुषसहित मेघोंसे घिरे हुए नितम्ब भाग (मध्य भागको) धारण करता है उसी प्रकार वह सुविधि भी सुवर्णमय करधनीको धारण किये हुए नितम्ब भाग (जघन भाग) को धारण करता था ॥१३६॥ वह सुविधि, सुवर्ण कमलको केशरके समान पीली जिन दो ऊरुओंको धारण कर रहा था वे ऐसी मालूम होती थीं मानो जगतरूपी घरके दो तोरण-स्तम्भ (तोरण बाँधनेके खम्भे) ही हों ॥१३७॥ उसकी दोनों जंघाएँ सुश्लिष्ट थी अर्थात् संगठित होनेके कारण परस्परमें सटी हुई थीं, मनुष्योंके चित्तको प्रसन्न करनेवाली थी और उनके अलंकारों (आभूषणोंसे) सहित थीं इसलिए किसी उत्तम कविकी सुश्लिष्ट अर्थात् श्लेषगुणसे सहित मनुष्योंके चित्तको प्रसन्न करनेवाली और उपमा, रूपक आदि अलंकारोंसे युक्त काव्य-रचनाको भी जीतती थीं ॥१३८।। अत्यन्त कोमल स्पर्शके धारक और लक्ष्मीके द्वारा सेवा करने योग्य (दाबनेके योग्य) उसके दोनों चरण-कमल जिस स्वाभाविक लालिमाको धारण कर रहे थे वह ऐसी मालम होती थी मानो सेवा करते समय • लक्ष्मीके कर-पल्लवसे छूटकर ही लग गयी हो ॥१३९॥ इस प्रकार वह सुविधि बालक होनेपर
भी अनेक सामुद्रिक चिह्नोंसे युक्त प्रकट हुए अपने मनोहर रूपके द्वारा संसारके समस्त जीवोंके मनको जबरदस्ती हरण करता था।।१४०। उस जितेन्द्रिय राजकुमारने कामका उद्रेक करनेवाले यौवनके प्रारम्भ समयमें ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य इन छह अन्तरङ्ग शत्रुओंका निग्रह कर दिया था इसलिए वह तरुण होकर भी वृद्धोके समान जान पड़ता था ॥१४१।। उसने यथायोग्य समयपर गरुजनोंके आग्रहसे उत्तम सीके साथ पाणिग्रहण करानेकी अनुमति दी थी और छत्र, चमर आदि राज्य-लक्ष्मीके चिह्न भी धारण किये थे, राज्य-पद स्वीकृत किया था ॥१४॥ तरुण अवस्थाको धारण करनेवाला वह सुविधि अभयघोष चक्रवर्तीका भानजा था इसलिए उसने उन्हीं चक्रवतीकी पुत्री मनोरमाके साथ विवाह किया था ॥१४३॥ सदा अनुकूल सती मनोरमाके साथ वह राजा चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहा सो ठीक है। सुशील और अनुकूल स्त्री ही पतिको प्रसन्न कर सकती है ॥१४४॥ इस प्रकार प्रीतिपूर्वक क्रीड़ा करते हुए उन दोनोंका समय बीत रहा था कि स्वयंप्रभ नामका देव ( श्रीमती
१. पिनद्धकटिसूत्रम् । २. सुसम्बदम् । ३. सम्मर्दन । ४. शोणस्वम् । ५. मथा प० । ६. उद्रेक । ७. 'अयुक्तितः प्रणीताः कामक्रोधलोभमानमदहर्षाः' इत्यरिषड्वर्गः। ८. स्वसुः पुत्रः भागिनेय इत्यर्थः । ९. यतः कारणात् । १०. पतिव्रतया।