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दशमं पर्व
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अपृथगविक्रियास्तेषामशुमाद् दुरितोदयात् । ततो विकृतबीमत्सविरूपात्मैव सा मता ॥३२॥ विवोधोऽस्ति विभङ्गाख्यस्तेषां पर्याप्स्यनन्तरम् । तेनान्यजन्मवैराणां स्मरन्स्युबट्टयन्ति च ॥१०॥ यदमी प्राक्तने जन्मन्यासन् पापेषु पण्डिताः । कद्दाश्च दुराचारास्तद्विपाकोऽयमुख्वणः ॥१०॥ ईविधं महादुःखं द्वितीयनरकाश्रितम् । पापेन कर्मणा प्रापत् शतबुद्धिरसौ सुर ॥१०५॥ तस्माद्दुःखमनिच्छूनां नारकं तीव्रमीहशम् । उपास्योऽयं जिनेन्द्राणां धर्मो मतिमतां नृणाम् ॥१०६॥ धर्मः प्रपाति दुःखेभ्यो धर्मः शर्म तनोत्ययम् । धर्मों नैःश्रेयसं सौख्यं दचे कर्मक्षयोद्भवम् ॥१०॥ धर्मादेव सुरेन्द्रस्त्वं नरेन्द्रत्वं गणेन्द्रता । धर्मात्तीर्थकरवं च परमानन्त्यमेव च ॥१०॥ धर्मों बन्धुश्च मित्रं च धर्मोऽयं गुरुरङ्गिनाम् । तस्मादमें मतिं धरस्व स्वर्मोक्षसुखदायिनि ॥१०९॥ तदा प्रीतिंकरस्येति वचः श्रुत्वा जिनेशिनः । श्रीधरो धर्मसंवेगं परं प्रापत् स पुण्यधीः ॥१०॥ गत्वा गुरुनिदेशेन शतबुदिमबोधयत् । किं भद्रमुख मां वेरिस शतबुद्धे महाबलम् ॥११॥ तदासीत् तव मिथ्यात्वमुद्रित दुर्नयाश्रयात् । पश्य तत्परिपाकोऽयमस्वन्तस्ते पुरःस्थितः ॥११२॥ इत्यसौ बोधितस्तेन शुद्धं दर्शनमग्रहीत् । मिथ्यात्वकलुषापापात् परां शुद्धिमुपाश्रितः ॥१३॥
कालान्ते नरकानीमान्निर्गस्य शतधीचरः । पुष्करद्वीपपूर्वार्द्धप्रागविदेहमुपागतः ॥११॥ कियोंके शरीरमें भी होता है ॥१०१। उन नारकियोंके अशुभ कर्मका उदय होनेसे अपृथक् विक्रिया ही होती है और वह भी अत्यन्त विकृत, घृणित तथा कुरूप हुआ करती है । भावार्थएक नारकी एक समयमें अपने शरीरका एक ही आकार बना सकता है सो वह भी अत्यन्त विकृत, घृणाका स्थान और कुरूप आकार बनाता है, देवोंके समान मनचाहे अनेक रूप बनानेकी सामर्थ्य नारकी जीवोंमें नहीं होती ॥१०२॥ पर्याप्तक होते ही उन्हें विभंगावधि ज्ञान प्राप्त हो जाता है जिससे वे पूर्वभवके वैरोंका स्मरण कर लेते हैं और उन्हें प्रकट भी करने लगते हैं ॥१०॥ जो जीव पूर्वजन्ममें पाप करने में बहुत ही पण्डित थे, जोखोटे वचन कहने में चतुर थे और दुराचारी थे यह उन्हींके दुष्कर्मोका फल है ॥१०४।। हे देव, वह शतबुद्धि मन्त्रीका जीव अपने पापकर्मके उदयसे ऊपर कहे अनुसार द्वितीय नरकसम्बन्धी बड़े-बड़े दुःखोंको प्राप्त हुआ है ।।१०५।। इसलिए जो जीव ऊपर कहे हुए नरकोंके तीव्र दुःख नहीं चाहते उन बुद्धिमान् पुरुषोंको इस जिनेन्द्रप्रणीत धर्मकी उपासना करनी चाहिए ॥१०६॥ यही जैन धर्म ही दुःखोंसे रक्षा करता है, यही धर्म सुख विस्तृत करता है, और यही धर्म कर्मोके झयसे उत्पन्न होनेवाले मोक्षसुखको देता है ।।१०७। इस जैन धर्मसे इन्द्र चक्रवर्ती और गणधरके पद प्राप्त होते हैं। तीर्थकर पद भी इसी धर्मसे प्राप्त होता है और सर्वोत्कृष्ट सिद्ध पद भी इसीसे मिलता है ।।१०८॥ यह जैन धर्म ही जीवोंका बन्धु है, यही मित्र है और यही गुरु है, इसलिए हे देव, स्वर्ग और मोक्षके सुख देनेवाले इस जैनधर्ममें हो तू अपनी बुद्धि लगा ॥१०९।। उस समय प्रीतिंकर जिनेन्द्रके ऊपर कहे वचन सुनकर पवित्र बुद्धिका धारक श्रीधरदेव अतिशय धर्मप्रेमको प्राप्त हुआ ॥११०॥ और गुरुके आज्ञानुसार दूसरे नरकमें जाकर शतबुद्धिको समझाने लगा कि हे भोले मुखें शतबुद्धि, क्या तू मुझ महाबलको जानता है ?॥११। उस भवमें अनेक मिथ्यानयोंके आश्रयसे तेरा मिथ्यात्व बहुत ही प्रबल हो रहा था। देख, उसी मिथ्यात्वका यह दुःख देनेवाला फल तेरे सामने है ॥११२। इस प्रकार श्रीधरदेवके द्वारा समझाये हुए शतबुद्धिके जीवने शुद्ध सम्यग्दर्शन धारण किया और मिथ्यात्वरूपी मैलके नष्ट हो जानेसे उत्कृष्ट विशुद्धि प्राप्त की ॥११३।। तत्पश्चात् वह शतबुद्धिका जीव आयुके अन्तमें
१. ततः कारणात् । २. विरूप दुर्वर्ण । ३. उद्धाट्टयन्ति । ४. दुर्वचनाः । ५. उत्कटः । ६. द्वितीयमरकमेत्य । ७. भद्रश्रेष्ठ । भद्रमुग्ध अ०. ५०, स० । ८. उत्कटम । ९, दुःखावसानः ।
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