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दशमं पर्व
२१३ 'वल्लूरीकृत्य शोष्यन्ते शूल्यमांसीकृताः परेः । पात्यन्ते च गिरेरमादधःकृतमुखाः परैः ॥५॥ दार्यन्ते क्रकचैस्तीक्ष्णः केचिन्मर्मास्थिसन्धिषु । तप्तायःसूचिनिर्मिन्ननखाग्रो ल्वणवेदनाः ॥५९॥ कांश्चिन्निशातशूलाग्र प्रोताल्लम्बान्त्रसन्ततीन् । भ्रमयत्युच्छलच्छोणशोणितारुणविग्रहान् ॥६०॥ व्रणजर्जरितान् कांश्चित् सिञ्चन्ति क्षारवारिभिः । तस्किलाप्यायनं तेषां मूर्छाविह्वलितात्मनाम् ॥६॥ कांश्चिदुत्तुङ्गशैलानात् पातितानतिनिष्ठुराः । नारकाः परुषं नन्ति शतशो वज्रमुष्टिमिः ॥६२॥ अन्यानन्ये विनिघ्नन्ति घणरतिनिघृणाः । विच्छिन्नप्रोच्छलच्चक्षुर्गोलोकानधिमस्तकम् ॥६३॥
औरभ्रश्च''रणैरन्यान् योधयन्ति मिथोऽसुराः । स्फुरद्ध्वनिदलन्मूर्द्ध गलन्मस्तिष्ककर्दमान् ॥६४॥ तप्तलोहासनेष्वन्याना सयन्ति पुरोद्धतान् । शाययन्ति च विन्यासैः . शितायःकण्टकास्तरे ॥६५॥ इत्यसह्यतरां घोर नारकों प्राप्य'यातनाम् ।उद्विग्नानां मनस्येषामेषा चिन्तोपजायते ॥६६॥ अहो दुरासदा भूमिः प्रदीप्ता ज्वलनाचिषा । वायवो वान्ति दुःस्पर्शाः स्फुलिङ्गकणवाहिनः ॥६७॥
दीप्ता दिशश्च दिग्दाहशवां संजनयन्त्यमूः । ततपांसुमयों वृष्टिं किरन्त्यम्बुमुचोऽम्बरात् ॥६॥ वे नारकी कितने हो नारकियोंको लोहेकी सलाईपर लगाये हुए मांसके समान लोहदण्डोंपर टाँगकर अग्निमें इतना सुखाते हैं कि वे सूखकर वल्लूर (शुष्क मांस ) की तरह हो जाते हैं
और कितने ही नारकियोंको नीचेकी ओर मुँह कर पहाडकी चोटीपर-से पटक देते हैं। कितने ही नारकियोंके मर्मस्थान और हड़ियोंके सन्धिस्थानोंको पैनी करोंतसे विदीर्ण कर डालते हैं और उनके नखोंके अग्रभागमें तपायी हुई लोहेकी सुइयाँ चुभाकर उन्हें भयंकर वेदना पहुँचाते हैं ॥५९।। कितने ही नारकियोंको पैने शूलके अग्रभागपर चढ़ाकर घुमाते हैं जिससे उनकी अंतड़ियाँ निकलकर लटकने लगती हैं और छलकते हुए खूनसे उनका साराशरीर लाललाल हो जाता है ॥६०॥ इस प्रकार अनेक घावोंसे जिनका शरीर जर्जर हो रहा है ऐसे नारकियोंको वे बलिष्ठ नारकी खारे पानीसे सींचते हैं। जो नारकी घावोंकी व्यथासे मूच्छित हो जाते हैं खारे पानीके सींचनेसे वे पुनः सचेत हो जाते हैं ।। ६१ ॥ कितने ही नारकियोंको पहाड़की ऊँची चोटीसे नीचे पटक देते हैं और फिर नीचे आनेपर उन्हें अनेक निर्दय नारकी बड़ी कठोरताके साथ सैकड़ों वज्रमय मुट्टियोंसे मारते हैं ॥६२॥ कितने ही निर्दय नारकी अन्य नारकियोंको उनके मस्तकपर मुद्गरोंसे पीटते हैं जिससे उनके नेत्रोंके गोलक (गटेना) निकलकर बाहर गिर पड़ते हैं ।। ६३ ।। तीसरी पृथिवी तक असुर कुमारदेव नारकियोंको मेढ़ा बनाकर परस्पर में लड़ाते हैं जिससे उनके मस्तक शब्द करते हुए फट जाते हैं और उनसे रक्त मांस आदि बहुत-सा मल बाहर निकलने लगता है ॥६४॥ जो जीव पहले बड़े उद्दण्ड थे उन्हें वे नारकी तपाये हुए लोहेके आसनपर बैठाते हैं और विधिपूर्वक पैने काँटोंके बिछौनेपर सुलाते हैं ॥ ६५॥ इस प्रकार नरककी अत्यन्त असह्य और भयंकर वेदना पाकर भयभीत हुए नारकियों के मनमें यह चिन्ता उत्पन्न होती है ॥६६॥ कि अहो ! अग्निकी ज्वालाओंसे तपी हुई यह भूमि बड़ी ही दुरासद ( सुखपूर्वक ठहरनेके अयोग्य ) है। यहाँपर सदा अग्निके फुलिंगोंको धारण करनेवाला यह वायु बहता रहता है जिसका कि स्पर्श भी सुखसे नहीं किया जा सकता ॥६७।। ये जलती हुई दिशाएँ दिशाओंमें आग लगनेका सन्देह उत्पन्न कर रही हैं
१. शुष्कमांसोकृत्य । 'उत्तप्तं शुष्कमांसं स्यात् तद्वल्लूरं विलिंगकम्' । २. शूले संस्कृतं दग्धं शूल्यं तच्च मांसं च शूल्यमांसम् । ३.परे म०, ल०। ४. उत्कट । ५. शूलाग्रेण निक्षिप्तान् । ६. आन्त्रं परीतम् । ७. क्षाराम्बुसेचनम् । ८. दृढमुष्टिप्रहारैः। ९. मुद्गरैः। १०. मेषसम्बन्धिभिः। 'मेढोरभोरणोर्णायमेष एडके।' इत्यभिधानात् । ११.युद्धः । १२. किट्टः । -मस्तिक्य-प०, म०, स०।-मस्तक-अ० ।-मास्तिकल.। १३. 'आस उपवेशने' । १४. विधिन्यासः । १५. शितं निशितम् 'तीक्ष्णम्'। १६. शय्याविशेषे । १७. तीव्रवेदनाम् । १८. भीतानाम् । १९. दुर्गमा ।